वारी के निमित्त लेख माला
संसार सफल हो गया !
ज्ञान की यात्रा द्वैत तक, भक्ति की यात्रा आगे भी चल रही है, पालकीयाँ आगे जा रही है ! अनंत तक । मन तो द्वैत ही जानता है। लहर और सागर अलग जान पडती है पर होती नही। क्या वह सागर नही है ? भक्तिसूत्र है- युक्तौ च सम्परायात् । वियोग के पहले दोनो एकही थे। जैसे जन्म के पहले मा और बच्चा एकही होते है। वैसे भेद भी उपरका ही है। जब हम नही थे तब हम कहा थे ? यह प्रश्न भी मजेदार है।
अनेको जन्मोंकी खोज किसी जन्म में ‘मै कौन हूँ ?’ इस परमप्रश्न के गहन विश्लेषण करने को हमे मजबूर करा देती है। और संभावना संभव लगने लगती है। पंढरपूर को निकले वारकरी की वारी अनेक जन्मों से हो रही है। जब तक भीतर के विठ्ठल के स्मरण आ जाए। उस अज्ञात के आश्वासित अनंत हात आधार देते समय स्मरण भी दिलाते है की ‘अरे ! मै ही मेरे गर्भ में था ! वह गर्भ तो उसी अनंत का है ! मै तो रोज होनेवाला परमात्मा ही तो हूँ !’ वारी में नाचते समय, भजन गाते समय या एकांत में मौन में किसी विलक्षण समय यह स्मरण किमती होता है। और फिर संसार दुख़मय ऐसी व्याख्या बदल जाती है।
यह भक्त कैसा होता है- जैसे पारधी के हाथो छुटा पंछी आकाश में अपनी स्वतंत्रता में उडने लगता है। वैसा ही भक्त अपने अनेक दुखों से मुक्त और इच्छारहित होकर संसार में रहने लगता है। अंतर्यात्रा की वारी यह उस योगी की आनंदमय यात्रा ही होती है।
संसार यह एक व्यथा है ऐसा नही लगता पर संसार में व्यथा है ऐसे अनुभव में आ जाता है। सुख का विस्तार ही संसार है यह प्रत्यय आता है। कारण वह उस शक्ति की ही अभिव्यक्ती है- शक्तित्वान्नानृत वेद्यम्- शक्ति एक क्रिया है। इस कारण जगत मिथ्या नही है। (भक्तिसूत्र) केवल चिद्विलास है !
यह संसार है ऐसी व्याख्या मन करता है वह केवल वस्तुनिर्देश है, अपरिच्छिन्न ऐसा परमात्मा, उसके लीलारुप जगत से भ्रांतिकाल में जीवका जो संबंध आता है उसे ही संसार कहते है। भ्रांतीयाँ समाप्त होते ही जन्ममरण का स्वइच्छासे किया हुआ आवागमन भी स्वसुखमय होता है। तुका म्हणे गर्भवासी सुखे घालावे आम्हासी ! अर्थात हे भगवन् ! आप हमे गर्भवास दे सकते हो ! ऐसे उद्गार जगद्गुरु तुकाराम महाराज जैसे संतों के मुख से सहजता से निकलते है ।
सुख तो मेरे बाहर है ऐसी भावनाही काम है ! ऐसा देहबुद्धीवाला जीव मै कर्ता के भावबंधन में जकड जाता है। केंद्र के परीधी में सुख खोजने जाता है। उस के लिए तो संसार सुखदु:खमय सिद्ध होता है।
उस वारकरी को, आज संसार सफल हुआ ऐसे लगने लगता है, कारण उसने विठ्ठल को पाया, उसे अपना ही साक्षात्कार हुआ, उस चिदानंदी मग्न पुरुष की माया छुटती है, चिद्रुप विस्तार का स्वरुप भ्रांती के विलक्षण माध्यम से प्रकट होता है तब उसे ‘माया’ कहते है। माया याने ‘मेय’ अर्थात जिसे नापा जा सकता है । पर जिसे नापा नही जा सकता उसका स्मरण संतत्व देता है।
सद्गुरु कृपासे यह स्मरण आता है अन्यथा नियती और समय इनकी सत्तातले जीव को अनिच्छा से जन्म लेना पडता है। समय ही वासना है। समय वासना की ही निर्मिती है। वासनामय जीव को मृत्यु का डर सताता है। मृत्यु समय को रोक देता है। वासना अभी बाकी है और मृत्यु सामने खडा है। जैसे ययाती अपने पुत्रोंसे उनकी आयु माँगता है फिर भी हजार साल जी कर भी वासनांए समाप्त नही होती, वासना दुष्पुर है। उसकी पुर्तता के लिए समय, भविष्यकाल चाहिए। कल की आशा पर हर एक ययाती अपनी जीवेषणा बचा रहा है। ‘अभी’ में रहना नही आता, पर वर्तमान में रहना आ गया तो इच्छा करना संभव नही होगा। वर्तमान को भी कौन पकड सकता है ? वर्तमान ऐसे कहने मात्र से उतना समय बीत गया, भूतकाल हुआ !
वासनातीत होना ही कालातीत होना है। जिसे सुई नही है ऐसी घडी होना ! चेतना के पास समय नही है। चेतना को वासना का स्पर्श होता है और समय की निर्मिती होती है। अस्तित्व में समय नही है, शुद्ध चेतना याने अस्तित्वमय होना। इस पृथ्वी से मनुष्य गायब हो जाए तो समय की अवधारणा ही नही रहेगी।
भ्रमीत जीव को जगतका होनेवाला अयथार्थ ज्ञान याने संसार ! बस यह भ्रांती मिट जानी चाहिए ! ऐसा निभ्रांत योगी फिर संसार में कितनाही क्यो न रहे वह नित्यमुक्त ही कहलाता है। आईने में वस्तु का प्रतिबींब दिखता है पर वह आईना साक्षी रहता है। वस्तु से तदाकार नही होता। ऐसी ही संकल्प और व्याख्याओं से मुक्त वारकरी की स्थिती हो जाती है।
केवल श्रीहरीका प्रेमरुप चिंतन ही भ्रांती मिटाने की दवा है। तृष्णा ही कृष्णा बनती है फिर सारे रंग एक हुए । अब सारे रंग मै हूँ। अब सत्य और मिथ्या किसे कहूँ। अब संतोने पालकीयाँ उठायी है, अनंत की वारी कभी समाप्त हो सकती है ? फिर नाचने और उत्सव मनाने के अलावा क्या हो सकता है ?
जय हरी !
अक्षरसेवा - दामोदर प्रकाश रामदासी, पुणे.
संसार सफल हो गया !
ज्ञान की यात्रा द्वैत तक, भक्ति की यात्रा आगे भी चल रही है, पालकीयाँ आगे जा रही है ! अनंत तक । मन तो द्वैत ही जानता है। लहर और सागर अलग जान पडती है पर होती नही। क्या वह सागर नही है ? भक्तिसूत्र है- युक्तौ च सम्परायात् । वियोग के पहले दोनो एकही थे। जैसे जन्म के पहले मा और बच्चा एकही होते है। वैसे भेद भी उपरका ही है। जब हम नही थे तब हम कहा थे ? यह प्रश्न भी मजेदार है।
अनेको जन्मोंकी खोज किसी जन्म में ‘मै कौन हूँ ?’ इस परमप्रश्न के गहन विश्लेषण करने को हमे मजबूर करा देती है। और संभावना संभव लगने लगती है। पंढरपूर को निकले वारकरी की वारी अनेक जन्मों से हो रही है। जब तक भीतर के विठ्ठल के स्मरण आ जाए। उस अज्ञात के आश्वासित अनंत हात आधार देते समय स्मरण भी दिलाते है की ‘अरे ! मै ही मेरे गर्भ में था ! वह गर्भ तो उसी अनंत का है ! मै तो रोज होनेवाला परमात्मा ही तो हूँ !’ वारी में नाचते समय, भजन गाते समय या एकांत में मौन में किसी विलक्षण समय यह स्मरण किमती होता है। और फिर संसार दुख़मय ऐसी व्याख्या बदल जाती है।
यह भक्त कैसा होता है- जैसे पारधी के हाथो छुटा पंछी आकाश में अपनी स्वतंत्रता में उडने लगता है। वैसा ही भक्त अपने अनेक दुखों से मुक्त और इच्छारहित होकर संसार में रहने लगता है। अंतर्यात्रा की वारी यह उस योगी की आनंदमय यात्रा ही होती है।
संसार यह एक व्यथा है ऐसा नही लगता पर संसार में व्यथा है ऐसे अनुभव में आ जाता है। सुख का विस्तार ही संसार है यह प्रत्यय आता है। कारण वह उस शक्ति की ही अभिव्यक्ती है- शक्तित्वान्नानृत वेद्यम्- शक्ति एक क्रिया है। इस कारण जगत मिथ्या नही है। (भक्तिसूत्र) केवल चिद्विलास है !
यह संसार है ऐसी व्याख्या मन करता है वह केवल वस्तुनिर्देश है, अपरिच्छिन्न ऐसा परमात्मा, उसके लीलारुप जगत से भ्रांतिकाल में जीवका जो संबंध आता है उसे ही संसार कहते है। भ्रांतीयाँ समाप्त होते ही जन्ममरण का स्वइच्छासे किया हुआ आवागमन भी स्वसुखमय होता है। तुका म्हणे गर्भवासी सुखे घालावे आम्हासी ! अर्थात हे भगवन् ! आप हमे गर्भवास दे सकते हो ! ऐसे उद्गार जगद्गुरु तुकाराम महाराज जैसे संतों के मुख से सहजता से निकलते है ।
सुख तो मेरे बाहर है ऐसी भावनाही काम है ! ऐसा देहबुद्धीवाला जीव मै कर्ता के भावबंधन में जकड जाता है। केंद्र के परीधी में सुख खोजने जाता है। उस के लिए तो संसार सुखदु:खमय सिद्ध होता है।
उस वारकरी को, आज संसार सफल हुआ ऐसे लगने लगता है, कारण उसने विठ्ठल को पाया, उसे अपना ही साक्षात्कार हुआ, उस चिदानंदी मग्न पुरुष की माया छुटती है, चिद्रुप विस्तार का स्वरुप भ्रांती के विलक्षण माध्यम से प्रकट होता है तब उसे ‘माया’ कहते है। माया याने ‘मेय’ अर्थात जिसे नापा जा सकता है । पर जिसे नापा नही जा सकता उसका स्मरण संतत्व देता है।
सद्गुरु कृपासे यह स्मरण आता है अन्यथा नियती और समय इनकी सत्तातले जीव को अनिच्छा से जन्म लेना पडता है। समय ही वासना है। समय वासना की ही निर्मिती है। वासनामय जीव को मृत्यु का डर सताता है। मृत्यु समय को रोक देता है। वासना अभी बाकी है और मृत्यु सामने खडा है। जैसे ययाती अपने पुत्रोंसे उनकी आयु माँगता है फिर भी हजार साल जी कर भी वासनांए समाप्त नही होती, वासना दुष्पुर है। उसकी पुर्तता के लिए समय, भविष्यकाल चाहिए। कल की आशा पर हर एक ययाती अपनी जीवेषणा बचा रहा है। ‘अभी’ में रहना नही आता, पर वर्तमान में रहना आ गया तो इच्छा करना संभव नही होगा। वर्तमान को भी कौन पकड सकता है ? वर्तमान ऐसे कहने मात्र से उतना समय बीत गया, भूतकाल हुआ !
वासनातीत होना ही कालातीत होना है। जिसे सुई नही है ऐसी घडी होना ! चेतना के पास समय नही है। चेतना को वासना का स्पर्श होता है और समय की निर्मिती होती है। अस्तित्व में समय नही है, शुद्ध चेतना याने अस्तित्वमय होना। इस पृथ्वी से मनुष्य गायब हो जाए तो समय की अवधारणा ही नही रहेगी।
भ्रमीत जीव को जगतका होनेवाला अयथार्थ ज्ञान याने संसार ! बस यह भ्रांती मिट जानी चाहिए ! ऐसा निभ्रांत योगी फिर संसार में कितनाही क्यो न रहे वह नित्यमुक्त ही कहलाता है। आईने में वस्तु का प्रतिबींब दिखता है पर वह आईना साक्षी रहता है। वस्तु से तदाकार नही होता। ऐसी ही संकल्प और व्याख्याओं से मुक्त वारकरी की स्थिती हो जाती है।
केवल श्रीहरीका प्रेमरुप चिंतन ही भ्रांती मिटाने की दवा है। तृष्णा ही कृष्णा बनती है फिर सारे रंग एक हुए । अब सारे रंग मै हूँ। अब सत्य और मिथ्या किसे कहूँ। अब संतोने पालकीयाँ उठायी है, अनंत की वारी कभी समाप्त हो सकती है ? फिर नाचने और उत्सव मनाने के अलावा क्या हो सकता है ?
जय हरी !
अक्षरसेवा - दामोदर प्रकाश रामदासी, पुणे.