Sunday, November 16, 2014

भारत के सभी विचार, उपासना पंथ सनातन धर्म है |

    हमारे पूर्वज याने ऋषी, मुनीयोने भारतीय सनातन धर्म याने सृष्टी के शाश्वत सिद्धांत खोज निकाले | वह ऊर्जा ही सनातन है, पदार्थ बदलता रहता है | इस सिद्धान्त को केवलाद्वैत भी कहते है | इसका अर्थ है निर्गुण | यह अर्थ सांख्य दर्शनके पुरुष तत्त्वके 'केवल'  इस विषेशण से लिया है | सांख्य दर्शन में कैवल्य शब्द मोक्ष के अर्थमे उपयोग किया है | मोक्ष अर्थ है परम स्वातंत्र्य | केवल याने परम स्वतंत्र | द्वैत याने दो; द्रष्टा और दृश्य, जगत और परमात्मा और जहा दो नहि वो अद्वैत | जगत और परमात्मा यह दो का भेद भ्रम है | वह ऊर्जा याने ब्रह्म वस्तुत: वही सब संसार है, यह सत्य है | वही ब्रह्म मैं हूँ ऐसा योगी समाधी में जान लेता है | जो बदलता रहता है पर वैसा प्रतीत नही होता वह माया | माया याने मेय | मेय याने जो नापा जा सकता है  ऐसा पदार्थ | और उस एक तत्त्व को, याने यह पुरा ब्रह्मांड ही वह है ऐसे ब्रह्म को कोई कैसा नाप सकता है ? | उस अद्वैत अवस्था में जो वह है बस वही मे हूँ; यह योगी जान लेता है | और आगे जाननेवाला खो जाता है | वहा कौन आत्मा और कौन परमात्मा  ? बस शून्य रह जाता है | इसलिए बुद्ध भी आत्मा की बात नही करते | शून्य की बात करते है | जब मैं खो जाता है वहा बस एक ही बचता है | जो सर्वत्र है | जो पूर्ण है | याने जहा योगी शून्य हो जाता है वही पूर्ण भी होता है | इसलिए शून्य याने पूर्ण | देह और उसके साथ जुडी हुई वह सारी चिजे इस चौखट में हम बंधे हुए है |  इससे मुक्त होना और परम स्वतंत्रताका अनुभव करना यह हमारा हक है | इस अवस्था को महावीर केवल अवस्था कहते है, बुद्ध निर्वाण, नानक का इक ओंकार सत यही है और आदी शंकर का यही मोक्ष है | इसलिए भारत मे इस अवस्था को जानने की प्रधानता सारे उपासना संप्रदाय रखते है | इसलिए इसके बावजूद की उनकी समज़ाने का तरीका अलग अलग है, इसलिए उनकी भाषा अलग अलग लगती हो, और उसी शब्दों के उलज़ाव में साधारण जन पडे हो और इसलिए उन्होने उन्ही बुद्ध या जिन्होंने जाना है उनके नामपर उसी शब्दके अलग अलग अर्थ निकालकर परस्पर विरोधी अलग अलग संप्रदाय निर्माण किए हो  फ़िर भी उन सारे संप्रदायोंको मिलाकर  उसे सनातन धर्म कहते है क्योंकी सारे एक ही दिशा में याने मुक्ती की और इशारा करते है, उसी की प्रधानता को समजाते है |  याने जिन्होने इस सृष्टी का शाश्र्वत नियम जानकर उसे "डिकोड" कर, इस परम स्वतंत्रता की अवस्था का रहस्य को उजागर किया हो, उसे अलग अलग नाम क्यों न दिए हो  - एकं सत विप्रा: बहुधा वदन्ती || (एक ही सत्य को, जाननेवाले अलग अलग नामसे बुलाते है |) पर उस अवस्था का ज्ञान न होने के कारण अज्ञानी लोगोने अपने अपने अर्थ निकाल कर अलग अलग सम्प्रदाय बनाए |  अगर परिभाषा अलग अलग है पर अर्थ एक ही है, कम से कम इतना जान ले तो सारे झगड़े समाप्त हो जाएंगे | पर जाती, संप्रदाय, उच-नीच इस अहंकार को बचाने की होड में  अहंकारकी प्रधानता रह गयी है ; शायद यह समाजस्वभाव भी सृष्टी का सनातन नियम है |
      परम स्वतंत्रता सृष्टी का शाश्वत नियम है, यही सनातन धर्म है; ना की मनुष्य निर्मित तथाकर्थित असंख्य कर्मकांड, या उसके नाम पर असंख्य जात, पंथ की कुरितीया | ज्ञानी पुरुषोके नाम पर अज्ञानी साधारण मनुष्य से निर्मित मजहब याने धर्म नही | मनुष्य जो भी क्रियाए करता है वह इस "परम स्वतंत्रता" को प्राप्त करने केलिए ही करता है | स्वतंत्र रहना ही उसका स्वभाव है | पर वह जानता नहीं | उसको प्राप्त करने के लिए जो रास्ता चुना है वह गलत दिशा है | रास्ता बाहर नहीं बल्की अपने ही अंदर है | उसके लिए बहिर्यात्रा नहीं बल्की अन्तर्यात्रा करनी होगी | यह न जानने की वजह से अज्ञान से अपने आपको बंधन में जिसने डाल के रखा हुआ है |