कृष्णजन्माष्टमी के निमित्त भावपुष्प
सहजीया वैष्णव पंथ !
भाग 1
भगवान विष्णु कृपाका उत्सव कही भी शुरु हो सकता है; ऐसा संदर्भ ऋग्वेद में है। यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति। इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपा: स मा धीर: पाकमत्रा विवेश॥ (ऋग्वेद 1.164.21) अर्थात अमृतका कुंभ जिसके स्वाधीन है ऐसा परमात्म तत्त्व- महान आत्मा- जगत्स्वामी सर्वज्ञ ईश्वर मेरे जैसे अपक्व स्थिती के जिज्ञासु साधकजीवन में प्रवेश करता है; अर्थात किरणों में सूर्यप्रकाश जैसा सभी स्तरोंपर प्रवेश करता है वैसे ही यह परमात्मा साधकजीवन में स्वप्रकाश लेकर अवतरीत होता है। तथापी यह कृपा साधक जीवन के शुरुआती समय की है, भगवान का यह रुप प्रभातसमय के सूर्यसमान जैसा है। जहा जिवात्मा प्रथम जागृत होता है। विष्णुमय जगत का भावोत्सव, समर्पणका गंगा तट तो अभी भविष्य के गर्भ में है। जहाँ यह अमृतकुंभ उलटा होगा।
शरण्य प्रपत्तिदशा (चित्त की शरणमार्गीय दशा) उपासकको आरंभ में प्राप्त होती है, भगवान से शरण्य एकता होती है। स्व-तंत्रता कृष्ण तंत्रता हो जाती है। बालक को माँ गोदी में लेती है। वैसे ही सहजसाधना का कृपापंथ याने भक्तियोग भगवान ही घटीत करते है। ऐसे समय गोदी में मजे से बैठा हुआ बालक माँ को एकटक देखता रहता है। उस समय माँ के बारे में अनेकानेक विचारों से उसका मन भर जाता है।
विराटका सिकुडना याने सगुण श्रीकृष्ण रुप और सगुण का अनंत विस्तार याने विराट। यहाँ भक्त प्रेम के कारण विराट सिकुडा हुआ है। वह पार्थसारथी भक्त को अभ्युदय और नि:श्रेयस के धर्ममार्ग पर ले जा रहा है। सगुण की लीला दिखाते समय उस परमसद्गुरुके अमृतशब्द पर किया हुआ ध्यान उपासकको प्रपंच और परमार्थ दोनो बातो में सिद्धी दिलाता है।
उपासक की परिशुद्ध और निर्मल प्रज्ञा को भगवान के अनेक रुप दिखायी देते है। श्रीकृष्ण चेतना अध्यात्म की परम गहनताए और अभिव्यक्ति की अलौकीक उंचाइयाँ प्राप्त करते समय गंभीर रस की अपेक्षा आनंदरुपी अमृतसागर के उबाल धारण करती है जिसमें उपासक नखशिखांत भिग जाता है।
मानवजाती के इतिहास में इतनी समग्रतासे और अनेक अंगों से जीवन को सहजता से स्वीकार करने वाली श्रीकृष्ण जैसी चेतना दुसरी नही हुई । सृष्टी ने दिए हुए सारे सुकोमल या नुकीली भावनांओं का सन्मान उसने बढाया। दुखी चित्त के काँटोंवाले जीवन को खिलने का सपना दिया। उदासीनता या दमन का निषेध करते समय - उन सारी भावनाओं में क्या मै नही बह रहा ? फिर तेरे सामने या तुझ में जो भी प्रकट हो रहा है उसका उत्सव मनाने के अलावा तेरे हातो में अब क्या रह जाता है ? इस प्रश्न से उस उपासक को जीवन का प्रसाद दिया ।
उसने ‘अकारण आनंदीत हो’ का मंत्र दिया। फुल किस ध्येय से खिलता है ? वायु का ध्येय क्या है ? उत्तर है अकारण !
शरीर के स्पंदन, बहनेवाली अनंत भावनांए इनका सहजस्वीकार कर ने को उसने बाध्य किया। इनसे लडने की अपेक्षा, रुपांतरण का मार्ग दिखाया। कारण वे शक्तियाँ अपनी ही तो है ! उनसे लडना याने एक हातने दुसरे हातसे लडने जैसा है ।
विषयेभ्य: परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके। उभयेषामिन्द्रियाणाम् स दम: परिकीर्तित:॥विवेकचुडामणि-23॥ कर्म और ज्ञान इंद्रियों का प्रत्याहार अर्थात उन्हे अंतर्मुख करना, केंद्र की ओर वापसी याने दमन है ऐसे आदि शंकराचार्य कहते है। कुछ जीवोंको लगता है की दमन याने भावनाओं को दबाना, अरे यह तो भक्तिविरोधी है। सृष्टी ने दि हुई भावना विष्णुमय है। वह तो विष्णुकी ही कृपा है। तद्विष्णो: परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरय:। दिवीव चक्षुराततम्॥ (ऋग्वेद 1.22.20) इस व्यापक भगवान का साधकको पूर्ण सहयोग होता है। इसका ही उदात्त प्रकाशमान रुप साधकजन अंतराकाश में निहारते रहते है। उस कृपा के कारण वह साधक प्रकाशीत होता है।
आंतरजगत विष्णुमय होने के बाद उस उपासकका स्वधर्मचक्रप्रवर्तन विविध स्तरों पर शुरु हो जाता है। सारे भेद नष्ट होते है। अनेकानेक जन्मों की अमंगलता समाप्त हो जाती है। उपासकको परिपूर्ण करने में विष्णुतत्त्व मदत करता है। इस कारण सारी भावनांए शरीरमन में एकरस में होती है। उनका कृष्णमय होना ही क्रांती का समय है। उस कृष्ण परमात्मा को आत्महिंसा या तथाकथित दमन कबुल नही है।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥गीता11-33॥ हे सव्यसाची (बांए हाथ से बाण छोडने की क्षमतावाला) इस कारण तू उठ, यश प्राप्त कर। शत्रू को परास्त कर धनधान्यसंपन्न राज्य का भोग ले। यह सारे शूरवीर पहले ही मेरे हाथों से मारे गए है। तू बस निमित्तमात्र है !
कृष्ण रस से रसमय हुआ ऐसा उपासक यह उपदेश पाकर पलायन नही करता। भक्ति का सामर्थ्य प्राप्त हुआ वह- अगर पुरुष हुआ तो स्त्री से भागता नही। अहिंसा और शांतीरुपी धर्मक्षेत्र से सिधे कुरुक्षेत्र के युद्ध में, हिंसा के दावनल में उतरनेकी हिंमत रखता है। बाहर अनंत संघर्ष आहे पर भीतर मात्र उसकी अनंत शांती भ्रष्ट नही होती।
जीवनका समग्रतासे स्वीकार करनेवाली चेतना उपासक में निर्माण करना यही तो उसकी लीला का ध्येय है। फिर अमृत हाथ में आते ही उस उपासकको विष का क्या डर ? अहिंसा सिद्ध होते ही हिंसा का क्या भय ? और अगर वह अहिंसा हिंसा को डरती हो, तो उसे नपुंसकच कहना ही उचीत होगा । समस्त द्वंद्वों का एक साथ स्वीकार यही कृष्ण भक्ति है ! यही समर्पण है !
श्रीकृष्णार्पणमस्तु !
लेखनसेवा - दामोदर प्र. रामदासी