गुरु, सद्गुरु और परमसद्गुरु का अनसुलझा रहस्य
I am a Voice Without Form स्वामी विवेकानंद के इस वाक्य में एक गहन सत्यता है। आश्वासन है। व्यक्तिगत चेतनाका अंतिम अविष्कार याने ईश्वर। एक पत्थरभी ईश्वरत्व की राह पर है। भारत की आध्यात्मिक धारणा यही है की ईश्वर निर्माण कर्ता से ज्यादा इस अस्तित्व का आखिरी कलश है। मंदिर शिखर है! शायद इसी कराणसे मंदिर के शिखर दर्शन हम करते है ! बीजरुप वह ईश्वर कभी ना कभी खिलता है। मोगरे का फुल खिलता है ! इस अपरोक्षानुभूति के बाद उस सिद्ध के अस्तित्व की सुगंध फैलती है। इतरेतर सामान्यजन जो उस खिले हुए अस्तित्व के सान्निध्य में आतेही वह भी सुगंधीत हो जाते है। उस सामान्य जनको भी ईश्वर होने के लिए वह मदत करता है। ऐसा वह सद्गुरु तो प्रकट ईश्वर है।
गुरु तीन प्रकार के है- पहला गुरु वह है जो विद्याकी आस जिसे है उसे विद्याका दान देता है। वह है विद्यागुरु या शिक्षक । वह तो केवल ज्ञान देता है पर अस्तित्व नही। वह तो मस्तिष्क में केंद्रीभूत होने को कहता है।
जो जानने से सब जाना जाता है क्या तुने वह सिखा है ? पिता उद्दालक गुरुकुल से शिक्षा लेकर घर वापस आनेवाले अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह प्रश्न पुछता है। तब उसका उत्तर पाने के लिए फिरसे आश्रम आए अपने विद्यार्थी की जिज्ञासा सुनकर अज्ञान की एकही नाव में बैठे हुए वे विद्यागुरु श्वेतकेतु को केवल विधी बताते है। और मै वह नही जानता ऐसा प्रामाणिकतासे कहते भी है। और उसे जानने के लिए श्वेतकेतू जंगल में चला जाता है।
यह विद्या पढकर मै क्या करु? केवल पेट भरना सिखानेवाले इस ज्ञान से भी अधिक किंमती जो है वह मै जानना चाहता हूँ ! ऐसा अपने बडे भाईसे, मै शाला क्यूँ नहि जाना चाहता इसका कारण बताने वाले गदाधर या रामकृष्ण परमहंस संसारी विद्याकी अपेक्षा अधिक महनीय ऐसा कुछ है यह जानते थे।
विद्यार्थी ज्ञान की खोज करता है पर शिष्य रुपांतरण की !
अधिक किंमती, जो जानने से सब जाना जाता है, वह सिखना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वह सिखाने की जबाबदारी जो लेते है वह सद्गुरु है जो देह धारण किए हुए होते है।
हां ! मैने उसे देखा है ! जैसे मै तुझे देख रहा हूँ बिल्कुल वैसे ही ! फर्क इतना है की इससे भी ज्यादा सुस्पष्ट रुपसे! क्या तू उसे देखना चाहता है ? ऐसा आत्मविश्वासपूर्वक कहने वाला साधु नरेंद्रने इससे पूर्व कभी देखा नही था। और यह आत्मविश्वास सार्थ करानेवाला स्पर्श उसे उस गुरुने दिया था। जिससे उसका जीवन बदल गया। वह तो स्रोतापन्न हुआ ! निर्विकल्प समाधी के बाद नरेंद्रनाथ ने कहा की उन्होने मुझे दिखलाया ! मैने मेरा ही चेहरा देखा। आगे वह भी उस सद्गुरुके स्थान पर कारुण्यभाव से बैठ गया। वह सद्गुरु थे रामकृष्ण परमहंस और वह शिष्य थे नरेंद्रनाथ याने स्वामी विवेकानंद।
क्या आप हमे कुछ सिखा सकते है ? ऐसा एकने रमण महर्षी को पुछा तो उन्होने कहा, नहि ! मै तो जो सिखाया गया है उसे भुलाने को बताता हूँ। ऐसे सद्गुरु उस बालकवत समर्पित शिष्य को आत्मभान देने के लिए उत्सुक रहते है। उसने जमाया हुआ कुडा कचरा साफ करते है। उसे उसका ही चेहरा दिखाते है।
ऐसे सद्गुरु अस्तित्व देते है ज्ञान नही। वह विकेंद्रित शिष्य को केंद्र की ओर ले जाते है। वे मस्तिष्क से जानकारी जडमूलसे उखाड फेकतें है। शिष्यके उस पौधे को कही और जगह पुनररोपीत करते है। कदाचित यह काम शुरु में बहुत पीडादायी होता है। वह उखाडना, रोपना, पत्तों का गिरना, मिट्टी में जडों का फिरसे जमना, यह सारा खेल प्रसव वेदनाओं जैसा होता है। फिर वह शिष्य बरगद की पेड जैसा फैलता है, उसका नया जनम होता है, वह द्वीज होता है।
सॉक्रेटीस कहते थे मै तो दाई जैसा हूँ, और यह बात एकदम सही है, कारण सद्गुरु अहम की मृत्यु के बाद अस्तित्वका होश देनेवाले प्रसव काल में मदत करते है।
पारस पत्थर लोहे को सोना बनाता है पर सोना लोहे को सोना नहि बनाता, पर सद्गुरु स्पर्श हुआ उपासक मात्र अनेक लोगोंका उद्धारकर्ता बन जाता है।
पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात् ॥पातंजलयोग, समाधीपाद-26॥ अर्थात कालातीत होने के कारण वह गुरुका गुरु परमसद्गुरु है। सद्गुरु जब देह त्याग करते है तब उनका कालातीत अस्तित्व होता है। तब वे परमसद्गुरु होते है, ओंकारस्वरुप ! इस में भी कुछ कुछ फिरसे जगत के कल्याण के लिए आते है पर कुछ तो कभी नहि आते। उनका महापरिनिर्वाण होता है। दिया सदा के लिए बुझ जाता है। कृष्ण, बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस, संत ज्ञानेश्वर, समर्थ, स्वामी विवेकानंद आदी फिरसे आते है । मै दोसौ वर्ष बाद फिरसे आनेवाला हूँ ! ऐसा रामकृष्ण ने नरेंद्रनाथ को कहा था ।
देह में रहते हुए सद्गुरु जीवनमुक्त होते है, जागृत होते है, समय के अभाव का बोध रहता है। पर देह को मर्यादा होती है प्रकृती की भुक, प्यास, निद्रा आदी एक जैवीक घडी चलती रहती है। पर देह त्याग के बाद परमसद्गुरु अमर्याद रहते है। रामकृष्ण परमहंस के देहत्याग के बाद मां शारदा सौभाग्य अलंकार जो हात का कंगण निकाल रहि थी तब रामकृष्ण सशरीर प्रकट हुए कहने लगे,मैने तो केवल देह त्यागदी है। कंगन निकालने की आवश्यकता नहि है।
I am a Voice Without Form ऐसा जब स्वामी विवेकानंद कहते है तब मै इस परमसद्गुरु के रुप में हूँ, यही कह रहे है। वह तो अनेको बार हमारे लिए आए हुए है। ऐसी स्थिती में हम उनका जन्मदिवस या मृत्युतिथी कैसे मना सकते है ? किस जन्म की तिथी मनाएंगे ?
कृष्ण अर्जुन को यहि बात समझा रहे है- बहुनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥5॥ अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥6॥- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत जन्म हुए है। तुझे नहि पर मुझे वह पता है। मै तो जन्मरहित और अविनाशी होकर भी सब प्राणीयोंका ईश्वर (परमसद्गुरु) हूँ। प्रकृती के स्वाधीन होकर अपने आपको अपनी योगमायासे प्रकट करता हूँ।
योगी अरविंद स्वत: कहते है,अलिपुरके कारागृह में योगाभ्यास करते समय स्वामी विवेकानंद मुझे मार्गदर्शन करते थे। उन्होने उनके शरीरका त्याग किया हुआ है, फिर भी वे परमसद्गुरु योग्य और समर्पित उपासकको समय समय पर मार्गदर्शन करते रहते है।
तिबेट में कैलाश पर्वत के पास एक ऐसी जगह है जहा पर हर साल वैशाखि पुर्णिमा पर याने जब बुद्ध निर्वाण को उपलब्ध हुए थे उस विशिष्ट समय पर पाचसौ बौद्ध सद्गुरु एकत्र आते है और उन्हे मार्गदर्शन करने के लिए साक्षात बुद्ध प्रकट होते है। साधनाकाल में स्वामी विवेकानंद को भी बुद्ध ने दर्शन दिए थे। सद्गुरु जब समय और अवकाश में विहार करते है तब भी उनका अदृश्य परमसद्गुरु के साथ संवाद चालु ही रहता है।
किसी जनम में जिसे सद्गुरु मिले है उस उपासक को अगर समाधी लाभ नहि हुआ है और उसने देह छोड दी, फिरसे जन्म लिया तब भी उसे प्रत्येक जन्म में सूक्ष्म मार्गदर्शन मिलता रहता है। उसे पता हो या नहि हो। ऐसे सद्गुरु और परमसद्गुरु कि महत्ता का वर्णन करना मुझे संभव नहि है।
जय हरी !
लेखन सेवा - दामोदर प्र. रामदासी, पुणे

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