संत ज्ञानेश्वर की संजीवन समाधि अवस्था
पुणे के पास श्रीक्षेत्र आलंदी में सिद्धेवर शिवमंदिर के समीप संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराजने भगवान विठ्ठल और संत नामदेव जैसे संतों के समक्ष गुफा में प्रवेश कर यौगीक क्रिया से संजीवन समाधी ली। शरीर के माध्यमसे होनेवाली लीला को विराम देकर उस चौखट के बाहर आकर संत ज्ञानदेव को जगतको धर्मज्ञान प्रदान करने की इच्छा थी। उनके संजीवन समाधीके निर्णय को देखकर ‘"आय एम अ व्हाईस विथाऊट फॉर्म’'' इस स्वामी विवेकानंदजी के उद्धर्णोंका स्मरण आता है। जिसका जन्म नही, मृत्यु नही ऐसे अनंत चैतन्य को शरीर की मर्यादाओंकी अडचण निर्माण होना स्वाभाविक है। ज्ञानदेव ने दिन निश्चित किया। उस निर्णय को सद्गुरु संत निवृत्तीनाथ को बताया। फिर संत नामदेव से लेकर अनेक संत जमा हुए। तिनचार दिन पहले ही नामदेव के पुत्रोने समाधीस्थान तयार किया। कार्तिक द्वादशीको अंतिम कीर्तन उन्होने किया और सामान्यजन को अंतिम नमस्कार किया। ऐसे समय सामान्यजन हृदय भावनाओंसे भर आना स्वाभाविक था। पर जो इस युक्ती को जानते थे वे स्थिर थे। कीर्तन के नंतर ज्ञानदेवने मौन धारण किया। कार्तिक वद्य त्रयोदशीको सिद्धबेट का प्रांगण करतालमृदंग ध्वनी और विठ्ठल नाम से स्पंदनशील हुआ था। सिद्धेश्वर शिवमंदिरा के समीप गुफा में उन्मनी अवस्था में गए ज्ञानदेव को नामदेव और निवृत्तीनाथ ने आधार देकर आसनावर बिठाया । भगवान विठ्ठल साथ थे। ज्ञानदेव की इच्छासे ज्ञानेश्वरी सामने रखी गयी। दीर्घ ओंकार के बाद सद्गुरु के समक्ष वे गहन समाधी में चले गए। गुफा का प्रवेशद्वार बडी शिला लगाकर उनके बडे भाई एवं सद्गुरु संत निवृत्तीनाथ ने स्वयम बंद कर दिया।
यौगिक क्रिया एवं संजीवन समाधी की इस जटील क्रिया को इस छोटे से लेख के माध्यम से हम जानने का प्रयास करे। इस विषय पर कुछ लिखने का अधिकार तो हमे नही है अपितु इस बहाने उस महान योगी का स्मरण करने का बहाना भी हमे छोडना नही चाहिए। इसी कारण से यह साहस कुछ संशोधन के आधारपर कर रहा हूँ।
कुंडलिनी उपासना में त्रिविध अवस्था ब्रह्मग्रंथी, विष्णुग्रंथी एवं रुद्रगंथी इनका वर्णन है। यह ग्रंथीयाँ याने वैदिक कल्पनानुसार स्वर्ग, मृत्यु एवं पाताल इन त्रिलोकों के द्वार है। यहा स्वर्ग का अर्थ है ‘मोक्ष’ । मोक्ष, स्वसंवेद्य, अवधूत, सिद्धत्त्व यह सारे शब्द एकही अवस्था के अर्थ है। यहाँ मोक्ष याने ‘चिरंजीवपद’ या ‘संजीवन समाधि’ अवस्था है।
ब्रह्मग्रंथि मणिपूरचक्र के बीच में होती है, उसका भेद होने से ही ऊर्ध्वगती या उन्नत स्तरीय दिव्यसृष्टी में प्रवेश प्राप्त हो सकता है। विष्णुग्रंथि हृच्चक्र में (हृदयचक्र में) होती है और रुद्रग्रंथि आज्ञाचक्र के या सहस्राधाराके ठीक मध्यभाग में होती है। पिंड ब्रह्मांड की चेतना शक्ति याने कुंडलीनी की यात्रा महावैष्णव संत ज्ञानेश्वर माऊली बता रहे है वे कहते है- मग कुंडलिनियेचा टेंभा। आधारी केला उभा। तया चोजवले प्रभा। निमथावरी ॥ओवी क्र. 51, अ. 12॥- अर्थात कुंडलिनी आधारचक्र से मणिपूरचक्र तक पूर्ण जागृत हो जाती है। वह धीरेधीरे सुषुम्नामार्ग से अपनी प्रगत शक्तिकेंद्र से युक्त होने के लिए ऊर्ध्व मार्ग से प्रयान करती है।
वह शिव की निजकला अभेदरुपसे पिंडब्रह्म का विस्तार क्रियाद्युक्त करती रहती है। संत ज्ञानदेव के नाथपरंपराका यही शिवशक्ती ऐक्य प्रबोध है। ऋग्वेद में कुंडलिनीके कुहरिणी, कुवरणी आदी नाम है। देह में ब्रह्मरंध्र शिव सहस्रधारां में शिवता शक्ति रुप से प्रकट होने पर गती धारण कर उसका अध:संचार शुरु हो जाता है, इसीको उसका सृजनकार्य कहते है। उस शक्तीका नाभीस्थान में प्रवेश होनेपरही वह संवेद्य होकर उस में सत्यरुपसे कल्याणकारी धर्मज्ञान संचरित होता है। सुषुम्नाकी स्वयंभू, बाण एवं पाताल यह जो तीन द्वार है वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीनो देवतांओंसे संबंधीत है। इनकोही ग्रंथी यह संज्ञा है। जिसका वर्णन हमने अभी देखा।
इस समाधी में जीवीत होते हुए स्वयं को दफन कर लेना ऐसा अर्थ गलत है। इस प्रकारकी जीवीत या मृत समाधी इनको योग में कोई स्थान नाही और अगर है तो कब्र या पदस्थापना इस अर्थसे है।
समाधी मे योगी का जिवीत रहना यह संजीवन समाधीका या निर्वाणसमाधीका बोध होता है। कभी समाप्त न होनेवाली निरुत्थान समाधी या अक्षय निर्वाण समाधी याने संजिवन समाधी । उस स्वर्ग को याने मोक्ष को उपलब्ध हुआ और उससे विश्वसामरस्य सधा हुआ ईश्वरस्वरुप योगी जब दृश्य का त्याग कर लीन होता है तब वह नष्ट नही होता अपितु कार्यार्थ अनेको में संचार करता रहता है।
यौगिक सामर्थ्य से पंचमहाभूतो में विलीन किया हुआ शरीर जरुरत पडनेपर फिरसे पंचभौतिक तत्त्वोंको धारण कर सकता है। उपासक जो अनंत करुणामयी ज्ञानदेव का बेटा है उसका आत्यंतिक शरणागत भाव एवं विरह को देखकर माऊली याने माँ अपने बेटे केलिए ऐसा कर सकती है, ऐसी श्रद्धा चित्त मे धारण कर कितने सारे वारकरी आलंदी में समाधी मंदिर के पास अजानवृक्ष के निचे बैठकर ज्ञानदेवी का चिंतन करते रहते है। योग्य उपासकों को समय आनेपर ओंकार का अनुभव देकर अपनी उपस्थिती का स्पर्श माँ कराती रहती है।
इस पावन अवसर पर आए हम सब मीलकर उस सद्गुरु तत्त्वका स्मरण करे, उनका आवाहन करे और हमारी आगे की यात्रा के लिए वह हमे दृश्य या अदृश्य रुपसे मार्गदर्शन करते रहे इसी शुभेच्छासे यहाँ विश्राम लेता हूंँ। जय रामकृष्णहरी !
लेखन और संशोधन- दामोदर प्र. रामदासी
पुणे के पास श्रीक्षेत्र आलंदी में सिद्धेवर शिवमंदिर के समीप संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराजने भगवान विठ्ठल और संत नामदेव जैसे संतों के समक्ष गुफा में प्रवेश कर यौगीक क्रिया से संजीवन समाधी ली। शरीर के माध्यमसे होनेवाली लीला को विराम देकर उस चौखट के बाहर आकर संत ज्ञानदेव को जगतको धर्मज्ञान प्रदान करने की इच्छा थी। उनके संजीवन समाधीके निर्णय को देखकर ‘"आय एम अ व्हाईस विथाऊट फॉर्म’'' इस स्वामी विवेकानंदजी के उद्धर्णोंका स्मरण आता है। जिसका जन्म नही, मृत्यु नही ऐसे अनंत चैतन्य को शरीर की मर्यादाओंकी अडचण निर्माण होना स्वाभाविक है। ज्ञानदेव ने दिन निश्चित किया। उस निर्णय को सद्गुरु संत निवृत्तीनाथ को बताया। फिर संत नामदेव से लेकर अनेक संत जमा हुए। तिनचार दिन पहले ही नामदेव के पुत्रोने समाधीस्थान तयार किया। कार्तिक द्वादशीको अंतिम कीर्तन उन्होने किया और सामान्यजन को अंतिम नमस्कार किया। ऐसे समय सामान्यजन हृदय भावनाओंसे भर आना स्वाभाविक था। पर जो इस युक्ती को जानते थे वे स्थिर थे। कीर्तन के नंतर ज्ञानदेवने मौन धारण किया। कार्तिक वद्य त्रयोदशीको सिद्धबेट का प्रांगण करतालमृदंग ध्वनी और विठ्ठल नाम से स्पंदनशील हुआ था। सिद्धेश्वर शिवमंदिरा के समीप गुफा में उन्मनी अवस्था में गए ज्ञानदेव को नामदेव और निवृत्तीनाथ ने आधार देकर आसनावर बिठाया । भगवान विठ्ठल साथ थे। ज्ञानदेव की इच्छासे ज्ञानेश्वरी सामने रखी गयी। दीर्घ ओंकार के बाद सद्गुरु के समक्ष वे गहन समाधी में चले गए। गुफा का प्रवेशद्वार बडी शिला लगाकर उनके बडे भाई एवं सद्गुरु संत निवृत्तीनाथ ने स्वयम बंद कर दिया।
यौगिक क्रिया एवं संजीवन समाधी की इस जटील क्रिया को इस छोटे से लेख के माध्यम से हम जानने का प्रयास करे। इस विषय पर कुछ लिखने का अधिकार तो हमे नही है अपितु इस बहाने उस महान योगी का स्मरण करने का बहाना भी हमे छोडना नही चाहिए। इसी कारण से यह साहस कुछ संशोधन के आधारपर कर रहा हूँ।
कुंडलिनी उपासना में त्रिविध अवस्था ब्रह्मग्रंथी, विष्णुग्रंथी एवं रुद्रगंथी इनका वर्णन है। यह ग्रंथीयाँ याने वैदिक कल्पनानुसार स्वर्ग, मृत्यु एवं पाताल इन त्रिलोकों के द्वार है। यहा स्वर्ग का अर्थ है ‘मोक्ष’ । मोक्ष, स्वसंवेद्य, अवधूत, सिद्धत्त्व यह सारे शब्द एकही अवस्था के अर्थ है। यहाँ मोक्ष याने ‘चिरंजीवपद’ या ‘संजीवन समाधि’ अवस्था है।
ब्रह्मग्रंथि मणिपूरचक्र के बीच में होती है, उसका भेद होने से ही ऊर्ध्वगती या उन्नत स्तरीय दिव्यसृष्टी में प्रवेश प्राप्त हो सकता है। विष्णुग्रंथि हृच्चक्र में (हृदयचक्र में) होती है और रुद्रग्रंथि आज्ञाचक्र के या सहस्राधाराके ठीक मध्यभाग में होती है। पिंड ब्रह्मांड की चेतना शक्ति याने कुंडलीनी की यात्रा महावैष्णव संत ज्ञानेश्वर माऊली बता रहे है वे कहते है- मग कुंडलिनियेचा टेंभा। आधारी केला उभा। तया चोजवले प्रभा। निमथावरी ॥ओवी क्र. 51, अ. 12॥- अर्थात कुंडलिनी आधारचक्र से मणिपूरचक्र तक पूर्ण जागृत हो जाती है। वह धीरेधीरे सुषुम्नामार्ग से अपनी प्रगत शक्तिकेंद्र से युक्त होने के लिए ऊर्ध्व मार्ग से प्रयान करती है।
वह शिव की निजकला अभेदरुपसे पिंडब्रह्म का विस्तार क्रियाद्युक्त करती रहती है। संत ज्ञानदेव के नाथपरंपराका यही शिवशक्ती ऐक्य प्रबोध है। ऋग्वेद में कुंडलिनीके कुहरिणी, कुवरणी आदी नाम है। देह में ब्रह्मरंध्र शिव सहस्रधारां में शिवता शक्ति रुप से प्रकट होने पर गती धारण कर उसका अध:संचार शुरु हो जाता है, इसीको उसका सृजनकार्य कहते है। उस शक्तीका नाभीस्थान में प्रवेश होनेपरही वह संवेद्य होकर उस में सत्यरुपसे कल्याणकारी धर्मज्ञान संचरित होता है। सुषुम्नाकी स्वयंभू, बाण एवं पाताल यह जो तीन द्वार है वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीनो देवतांओंसे संबंधीत है। इनकोही ग्रंथी यह संज्ञा है। जिसका वर्णन हमने अभी देखा।
इस समाधी में जीवीत होते हुए स्वयं को दफन कर लेना ऐसा अर्थ गलत है। इस प्रकारकी जीवीत या मृत समाधी इनको योग में कोई स्थान नाही और अगर है तो कब्र या पदस्थापना इस अर्थसे है।
समाधी मे योगी का जिवीत रहना यह संजीवन समाधीका या निर्वाणसमाधीका बोध होता है। कभी समाप्त न होनेवाली निरुत्थान समाधी या अक्षय निर्वाण समाधी याने संजिवन समाधी । उस स्वर्ग को याने मोक्ष को उपलब्ध हुआ और उससे विश्वसामरस्य सधा हुआ ईश्वरस्वरुप योगी जब दृश्य का त्याग कर लीन होता है तब वह नष्ट नही होता अपितु कार्यार्थ अनेको में संचार करता रहता है।
यौगिक सामर्थ्य से पंचमहाभूतो में विलीन किया हुआ शरीर जरुरत पडनेपर फिरसे पंचभौतिक तत्त्वोंको धारण कर सकता है। उपासक जो अनंत करुणामयी ज्ञानदेव का बेटा है उसका आत्यंतिक शरणागत भाव एवं विरह को देखकर माऊली याने माँ अपने बेटे केलिए ऐसा कर सकती है, ऐसी श्रद्धा चित्त मे धारण कर कितने सारे वारकरी आलंदी में समाधी मंदिर के पास अजानवृक्ष के निचे बैठकर ज्ञानदेवी का चिंतन करते रहते है। योग्य उपासकों को समय आनेपर ओंकार का अनुभव देकर अपनी उपस्थिती का स्पर्श माँ कराती रहती है।
इस पावन अवसर पर आए हम सब मीलकर उस सद्गुरु तत्त्वका स्मरण करे, उनका आवाहन करे और हमारी आगे की यात्रा के लिए वह हमे दृश्य या अदृश्य रुपसे मार्गदर्शन करते रहे इसी शुभेच्छासे यहाँ विश्राम लेता हूंँ। जय रामकृष्णहरी !
लेखन और संशोधन- दामोदर प्र. रामदासी
No comments:
Post a Comment