तेजगतीसे उत्पन्न भ्रांती :
हवाई जहाज का पंखा बड़ा तीव्र गतीसे घूमता है, तो हमें संदेह होता होने लगता है की इसमे ताड़ियां है या नहीं । अंधेरे में जलती मशाल तेजी से घुमाई जाती है, लगता है कि अग्नि का गोल आकार है । पृथ्वी अपनी धूरी पर पश्च्चिम से पूर्व को घूमती है और हमें यह भ्रम होता है कि सूर्य पूर्व में उदय होता है और पश्च्चिम में अस्त होता है । मोमबत्ती जो रात को जलाई है सुबह तक एकजैसी दिखाई देती है । वास्तविकता है कि उस मोमबत्ती कि एक एक लौ प्रतिक्षण ऊपर की ओर उठती है विलीन होती है और फिर नई लौ पैदा होती है । उसीमे धसती हुई उसका स्थान लेती है । घनसंतति के कारण कायम रहनेवाले प्रकाशपूंज का भ्रम पैदा होता है । एक लौ से दूसरी लौ इतनी तेजी से निर्माण होती है की दो लौ के बीच का अंतराल दिखाई नहीं देता । क्षेत्र में भी और काल (Time) में भी वह एक के साथ एक सटी होने के कारण घनत्व कि यहाँ माया दुहरी भ्रांती पैदा करती है । तभी ट्यूब लाईट का प्रकाश भी हमें चिरकाल एक जैसा कायम रहनेवाला दिखाई देता है ।
जैसा है वैसा दिखाई नहीं देता :
पावरहाऊस में उत्पन्न होनेवाली विद्युत् शक्ति प्रतिक्षण टयूब में आकर जल करा नष्ट हो जाती है । यहाँ सचाई हमें नजारा नहीं आती । पर्टयका भासमान ठोस सत्य वास्तविक सत्य परा आवरण डाले हुए है । इसी कारण, जो जैसा है वैसा दीखता नहीं । इसी प्रकार बाह्य जगत के ये सारे ऐंद्रिय आलम्बन जिन्हे कि हम भिन्न भिन्न रंग - रूप, स्पर्श, गंध, रस आदि गुणधर्मवाले ठोस पदार्थ मानते है । वे सभी शून्य में उदय व्यय होनेवाली तरंगे मात्र है । विषयी (Subject) और विषय (Object) दोनों तरंगे ही तरंगे है, शून्यवत है । अनित्य, क्षणभंगुर है । किंतु हमें नित्य जैसा लगता है । यही माया है । लेकिन इसी माया के कारण शरीर के प्रती चिपकाव पैदा हो जाता है । जो जैसा है वह दिखाई नहीं देता । हमारा सत्य दिखाई नहीं देता । और हम अनित्यतामे, भेद में, फसे रहने के कारण सुख और दुख का अनुभव करते रहते है । पर समाधी के अभ्यास के कारण इसा भ्रांती के परे हम चले जाते है । और जो सत्य जैसा है वैसा हम देख सकते है । आदी शंकराचार्य कहते है :
यत्र भ्रान्त्या कल्पितं तदविवेके
तत्तन्मात्र नैव तस्माद्विभिन्नम् ।
भ्रांन्तेर्नाशे भाति दृषटाहितत्त्वम
रज्जुस्तद्वद्विश्र्वमात्मस्वरूपम ॥ ३८७ ॥ विवेकचूडामणि
अर्थ : एक वस्तु में भरम होने के कारण दूसरी चीज दिखाई देती है । लेकीन विवेक के माध्यम से मूल वस्तु से वो दूसरी चीजे भिन्न नहीं है (एक ही ऊर्जा के रूप है । ) ऐसा प्रतीत होता है । दुसरी चीज को अस्तित्व नही होता (क्यूंकी दोनों एक ही है । ऊर्जा ही पदार्थ है । ) अंधेरेमे रज्जु साप जैसी दिखाई देती है लेकिन भ्रम समाप्त होते ही वह रज्जु ही है ऐसा अनुभव होता है । ये विश्र्व आत्मा या ऊर्जा ही है । लेकिन हमें भ्रम हुआ है ।
भगवान बुद्ध कहते है : परमाणु से भी छोटा जिसे आगे विभाजीत नही किया जा सकता उसे कलाप कहते है । कलापा ठोस कण लगता है लेकिन है नहीं मात्र तरंगोंका पूंज मात्र है । जिसमे पृथ्वी धातु , अग्नि धातु , वायु धातु , जल धातु, और उनके गुणधर्म है । यही अठ्ठकलाप है । हरा कलाप में बड़ी शून्यता याने आकाश है । वे सटे हुए नहीं है बल्कि तरंगे ही तरंगे है । यहाँ कलाप प्रतिक्षण अगणित बार उत्पन्न होकर समाप्त होते रहते है । बीच का अंतर दिखाई नहीं देता इसलिए वस्तु ठोस दिखाई देती है । यही माया है ।
ऐसे हमारा चित्त भी घनता प्रतीत होती है । परा यहाँ भी तरंग मात्र है । एक क्षण में सतरह बार अधिक वेगसे उत्पन्न होकर नष्ट होती है । इसको चित्तक्षण कहा है । सत्रह चित्त क्षणो का एक रूप क्षण होता है । बुद्ध कहते है
सब्बो पज्जलितो लोको,
सब्बो लोको पकंपितो ॥
सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलिता दिखाई देते है । समस्त लोक प्रकम्पित ही प्रकम्पित नजर आते है ।.…
हवाई जहाज का पंखा बड़ा तीव्र गतीसे घूमता है, तो हमें संदेह होता होने लगता है की इसमे ताड़ियां है या नहीं । अंधेरे में जलती मशाल तेजी से घुमाई जाती है, लगता है कि अग्नि का गोल आकार है । पृथ्वी अपनी धूरी पर पश्च्चिम से पूर्व को घूमती है और हमें यह भ्रम होता है कि सूर्य पूर्व में उदय होता है और पश्च्चिम में अस्त होता है । मोमबत्ती जो रात को जलाई है सुबह तक एकजैसी दिखाई देती है । वास्तविकता है कि उस मोमबत्ती कि एक एक लौ प्रतिक्षण ऊपर की ओर उठती है विलीन होती है और फिर नई लौ पैदा होती है । उसीमे धसती हुई उसका स्थान लेती है । घनसंतति के कारण कायम रहनेवाले प्रकाशपूंज का भ्रम पैदा होता है । एक लौ से दूसरी लौ इतनी तेजी से निर्माण होती है की दो लौ के बीच का अंतराल दिखाई नहीं देता । क्षेत्र में भी और काल (Time) में भी वह एक के साथ एक सटी होने के कारण घनत्व कि यहाँ माया दुहरी भ्रांती पैदा करती है । तभी ट्यूब लाईट का प्रकाश भी हमें चिरकाल एक जैसा कायम रहनेवाला दिखाई देता है ।
जैसा है वैसा दिखाई नहीं देता :
पावरहाऊस में उत्पन्न होनेवाली विद्युत् शक्ति प्रतिक्षण टयूब में आकर जल करा नष्ट हो जाती है । यहाँ सचाई हमें नजारा नहीं आती । पर्टयका भासमान ठोस सत्य वास्तविक सत्य परा आवरण डाले हुए है । इसी कारण, जो जैसा है वैसा दीखता नहीं । इसी प्रकार बाह्य जगत के ये सारे ऐंद्रिय आलम्बन जिन्हे कि हम भिन्न भिन्न रंग - रूप, स्पर्श, गंध, रस आदि गुणधर्मवाले ठोस पदार्थ मानते है । वे सभी शून्य में उदय व्यय होनेवाली तरंगे मात्र है । विषयी (Subject) और विषय (Object) दोनों तरंगे ही तरंगे है, शून्यवत है । अनित्य, क्षणभंगुर है । किंतु हमें नित्य जैसा लगता है । यही माया है । लेकिन इसी माया के कारण शरीर के प्रती चिपकाव पैदा हो जाता है । जो जैसा है वह दिखाई नहीं देता । हमारा सत्य दिखाई नहीं देता । और हम अनित्यतामे, भेद में, फसे रहने के कारण सुख और दुख का अनुभव करते रहते है । पर समाधी के अभ्यास के कारण इसा भ्रांती के परे हम चले जाते है । और जो सत्य जैसा है वैसा हम देख सकते है । आदी शंकराचार्य कहते है :
यत्र भ्रान्त्या कल्पितं तदविवेके
तत्तन्मात्र नैव तस्माद्विभिन्नम् ।
भ्रांन्तेर्नाशे भाति दृषटाहितत्त्वम
रज्जुस्तद्वद्विश्र्वमात्मस्वरूपम ॥ ३८७ ॥ विवेकचूडामणि
अर्थ : एक वस्तु में भरम होने के कारण दूसरी चीज दिखाई देती है । लेकीन विवेक के माध्यम से मूल वस्तु से वो दूसरी चीजे भिन्न नहीं है (एक ही ऊर्जा के रूप है । ) ऐसा प्रतीत होता है । दुसरी चीज को अस्तित्व नही होता (क्यूंकी दोनों एक ही है । ऊर्जा ही पदार्थ है । ) अंधेरेमे रज्जु साप जैसी दिखाई देती है लेकिन भ्रम समाप्त होते ही वह रज्जु ही है ऐसा अनुभव होता है । ये विश्र्व आत्मा या ऊर्जा ही है । लेकिन हमें भ्रम हुआ है ।
भगवान बुद्ध कहते है : परमाणु से भी छोटा जिसे आगे विभाजीत नही किया जा सकता उसे कलाप कहते है । कलापा ठोस कण लगता है लेकिन है नहीं मात्र तरंगोंका पूंज मात्र है । जिसमे पृथ्वी धातु , अग्नि धातु , वायु धातु , जल धातु, और उनके गुणधर्म है । यही अठ्ठकलाप है । हरा कलाप में बड़ी शून्यता याने आकाश है । वे सटे हुए नहीं है बल्कि तरंगे ही तरंगे है । यहाँ कलाप प्रतिक्षण अगणित बार उत्पन्न होकर समाप्त होते रहते है । बीच का अंतर दिखाई नहीं देता इसलिए वस्तु ठोस दिखाई देती है । यही माया है ।
ऐसे हमारा चित्त भी घनता प्रतीत होती है । परा यहाँ भी तरंग मात्र है । एक क्षण में सतरह बार अधिक वेगसे उत्पन्न होकर नष्ट होती है । इसको चित्तक्षण कहा है । सत्रह चित्त क्षणो का एक रूप क्षण होता है । बुद्ध कहते है
सब्बो पज्जलितो लोको,
सब्बो लोको पकंपितो ॥
सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलिता दिखाई देते है । समस्त लोक प्रकम्पित ही प्रकम्पित नजर आते है ।.…
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