तुम सनातन धर्मीय नही हो ?
हरयाना में दलित उत्पीडन मामला हो , गुजरात में दलितों को असुरक्षीत लगना यह घटनाए घोर संताप पैदा कर देता है। हरयाना में इतनी बेरहमी से क्या कोई अपनेही बांधवोंको मार सकता है ? राक्षसोंकी यह पुरानी पिढी समाप्त करने में हम सनातन धर्मीय आज भी पराजीत हुए है। कृष्ण, बुद्ध के वंशज कहने में हमे शरम आनी चाहिए । गोमाता को बचाने में जुटे हम क्या उन मानवों को बचाने में सहायता नही कर सकते ? क्या उनमे वही देवता हमे नजर नही आते ? स्वामी विवेकानंदजी ने कहा की ब्राह्मणो और क्षत्रियों के अत्याचार अब स्वयं उन्ही के सिरों पर चक्रवृद्धि व्याज सहित टूट पडे है और कर्मफल के अटल नियमानुसार उन्हे एक सहस्र वर्ष तक दासत्व और अध:पतन भोगना पड रहा है।
और अब सवर्णीय सुधरे नही तो आने वाले समय में अनेकानेक डॉ. अंबेडकर जैसे विद्वान सवर्णोंका गर्व परास्त करने के लिए जन्म लेते रहेंगे। डर तो इस बात का है खंड खंड में बटा हुआ हिंदु समाज विद्रोह के तप्त लाव्हा खंड पर बैठा अनेकानेक टुकडो में बिखर जाएगा और उसके पिछे खडा वह अभिजात ऐतिहासीक उदात्त आध्यात्मिक गौरीशंकरसा अद्वैत विचार उस के निचे राख बनकर दब जाएगा अपितु दब गया है । इसिलिए तो हमारे समाज की यह हालत है । पशुवत तमोगुण हमारा स्वभाव बन चुका है।
इतिहास में ऐसा बार बार हुआ है लेकिन कई कृष्ण, कई बुद्ध वीरोचित आवाहन स्वीकर कर उस रणभूमी में अपने अपने तरीकेसे उस विचार को उस राख से निकालकर फिरसे उसमें अग्नि प्रज्वलित कर करोडो हृदयों मे फिरसे उसे स्थापित किया है।
वर्तमान में प्रश्न यह है की उस विचार को बचाने वाले कृष्ण या बुद्ध को जन्म लेने में कई सदिया निकल जाती है। क्या हम मनुष्यप्राणीयोंके पास क्या इतना समय बचा है ? क्या अहंकार की इस लडाई में क्या मानवीय मूल्य जिवीत रह पाएंगे ? यह रक्तबीज राक्षस अनेकानेक आकारो में हमे पुकार कर अपने जैसा बना रहा है ? कृष्ण और बुद्ध मानवोंकी कोख से ही जन्म लेते है, लेकिन हमारे हरकतों से कम से कम क्या इस संभावना को हमने जिवीत रखा है की वह हमारे कोख से जन्म लें सके? उस धारणाशक्ति को क्या हमने स्वयं समाप्त नही किया है ?
पता है हमे क्या है सनातन धर्म ? अध्यात्मिक समझ न होने के कारण कुछ पुराणवादी परंपरा, जात, संप्रदाय, वंश के नामपर हम कमअकल लोगो ने जिवित रखी हुई मुर्दा जीवन पद्धती याने हमारा सनातन धर्म बन चुका है ? मणिकर्णिका घाटपर अपने शिष्योंको साथ लेकर चलनेवाले आदी शंकर को अपने चार कुत्ते साथ लेकर चलनेवाले उस चांडाल ने जो बात समझाई वह है सनातन धर्म । अपने मार्ग में आनेवाले उस चांडाल को दूर होने के लिए जब शंकर ने कहा तब उसने जो प्रश्न पुछा उससे जो शंकर के चित्त में जो विद्रोह उठा उस वैराग्य का नाम सनातन धर्म है ? परंपरा को नकार कर अपने सनातन तेज से नित्यनुतन सिद्ध रह कर अंगभूत गुणोंसे चमकता रहता है वह है सनातन धर्म ! चांडाल ने पुछा, अन्नमयादन्नमयं चैतन्यमेव चैतन्यात्। यतिवर दूरी कर्तुं वाञ्छसि किं बहिर्गच्छ गच्छेति ॥ प्रत्यगवस्तुनि निस्तरंग सहजानन्दावबोधाम्बुधौ। विप्रोऽयं श्वपचोऽयमित्यपि महान् कोऽयं विभेद-भ्रम:॥ किंगंगाम्बुनि बिम्बतेऽम्बरमणौ चाण्डाल वीथी पय: पुरै। वान्तमस्ति कांचनघटे मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे॥ हे यति ! अन्नमयकोश (तेरा और मेरा शरीर अन्न से ही बना है, सृष्टी बनाने में भेद नही करती) और साक्षीचैतन्य (आत्मा) तुझ मे और मुझ मे एक ही है (यही अद्वैत विचार है)। ब्राह्मण और श्वपच (नीच जातवाला) भेदको वहा स्थान ही नही है। सूर्य का बींब गंगा में और मदिरा पात्र में समान रुप से प्रतिबिंबीत होता है न ? क्या सूर्य में कुछ फरक होता है ? गंगा में पडा है इसलिए पवित्र और मदिरा पात्र में पडा है इसलिए अपवित्र, क्या ऐसा होता है ? आत्मतत्त्व भी वैसा ही एक जैसा ही प्रतिबींबित होता है; उस में उचनीच का भाव नही है ! यह चांडाल, यह ब्राह्मण क्या यह भेद भ्रम नही है ? बोलो आचार्य ! क्या मेरी बात सही नही है ?
इस दिव्य भाषण को सुनकर आचार्य स्तिमित हुए। बोले, ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्र विस्तारितम्। सर्वं चैतदविद्ययां त्रिगुणया शेषं मया कलितम्॥ इत्थं यस्य दृढा मति: सुखतरे नित्ये परे निर्मले। चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम॥- हे चांडाल, मेरी सुन, सब ब्रह्म ही है। और सकल जग चिन्मात्राकाही विस्तार है। यह सब त्रिगुणात्मक अविद्याके कारण मैने कल्पित किया है। इस प्रकारसे जिसकी मति उस सुखैक, नित्य व निर्मल ऐसे श्रेष्ठ सद्वस्तूपर दृढ हुई है, फिर वह ब्राह्मण है या चांडाल वह साक्षात मेरे गुरुदेव ही है ऐसी मेरी दृढभावना है ! ऐसा कहकर आचार्य उस को नमस्कार करते है।
क्या यह उदात्त विचार सनातन धर्म नही है ? अगर है तो अपने आप को सनातन धर्मीय कहने वालो इस विचार को तुने पराजित कर दिया है ! जब आग की तपन उन दलित नन्हे बालकोंको और उनके माता पिता को झोपडे में जला रहि थी उसी वक्त तेरा यह विचार भी तुने उस अग्नि में जला कर भस्म कर डाला। अब बची है तेरे पुराणवादी धर्म की पराजय की राख। अपने उन्नत अहंकारी ललाट पर अब लगाओ उस राख को ! और चलते बनो ! तुम्हारे उन मिथ्या देवताओंके पिछे ! मानवरुपी भगवान को तो तुने जला डाला ..... मुझे माफ करना तुम्हारे तथाकथित धर्म का मै भागिदार नही हूँ, विद्रोह करता हूँ मैं तुम्हारे पुराणवादी उंचनीचवाले धर्म के विरोध में क्योंकी मैं सनातन धर्मीय हूँ।
(लेखन- दामोदर प्र. रामदासी)
हरयाना में दलित उत्पीडन मामला हो , गुजरात में दलितों को असुरक्षीत लगना यह घटनाए घोर संताप पैदा कर देता है। हरयाना में इतनी बेरहमी से क्या कोई अपनेही बांधवोंको मार सकता है ? राक्षसोंकी यह पुरानी पिढी समाप्त करने में हम सनातन धर्मीय आज भी पराजीत हुए है। कृष्ण, बुद्ध के वंशज कहने में हमे शरम आनी चाहिए । गोमाता को बचाने में जुटे हम क्या उन मानवों को बचाने में सहायता नही कर सकते ? क्या उनमे वही देवता हमे नजर नही आते ? स्वामी विवेकानंदजी ने कहा की ब्राह्मणो और क्षत्रियों के अत्याचार अब स्वयं उन्ही के सिरों पर चक्रवृद्धि व्याज सहित टूट पडे है और कर्मफल के अटल नियमानुसार उन्हे एक सहस्र वर्ष तक दासत्व और अध:पतन भोगना पड रहा है।
और अब सवर्णीय सुधरे नही तो आने वाले समय में अनेकानेक डॉ. अंबेडकर जैसे विद्वान सवर्णोंका गर्व परास्त करने के लिए जन्म लेते रहेंगे। डर तो इस बात का है खंड खंड में बटा हुआ हिंदु समाज विद्रोह के तप्त लाव्हा खंड पर बैठा अनेकानेक टुकडो में बिखर जाएगा और उसके पिछे खडा वह अभिजात ऐतिहासीक उदात्त आध्यात्मिक गौरीशंकरसा अद्वैत विचार उस के निचे राख बनकर दब जाएगा अपितु दब गया है । इसिलिए तो हमारे समाज की यह हालत है । पशुवत तमोगुण हमारा स्वभाव बन चुका है।
इतिहास में ऐसा बार बार हुआ है लेकिन कई कृष्ण, कई बुद्ध वीरोचित आवाहन स्वीकर कर उस रणभूमी में अपने अपने तरीकेसे उस विचार को उस राख से निकालकर फिरसे उसमें अग्नि प्रज्वलित कर करोडो हृदयों मे फिरसे उसे स्थापित किया है।
वर्तमान में प्रश्न यह है की उस विचार को बचाने वाले कृष्ण या बुद्ध को जन्म लेने में कई सदिया निकल जाती है। क्या हम मनुष्यप्राणीयोंके पास क्या इतना समय बचा है ? क्या अहंकार की इस लडाई में क्या मानवीय मूल्य जिवीत रह पाएंगे ? यह रक्तबीज राक्षस अनेकानेक आकारो में हमे पुकार कर अपने जैसा बना रहा है ? कृष्ण और बुद्ध मानवोंकी कोख से ही जन्म लेते है, लेकिन हमारे हरकतों से कम से कम क्या इस संभावना को हमने जिवीत रखा है की वह हमारे कोख से जन्म लें सके? उस धारणाशक्ति को क्या हमने स्वयं समाप्त नही किया है ?
पता है हमे क्या है सनातन धर्म ? अध्यात्मिक समझ न होने के कारण कुछ पुराणवादी परंपरा, जात, संप्रदाय, वंश के नामपर हम कमअकल लोगो ने जिवित रखी हुई मुर्दा जीवन पद्धती याने हमारा सनातन धर्म बन चुका है ? मणिकर्णिका घाटपर अपने शिष्योंको साथ लेकर चलनेवाले आदी शंकर को अपने चार कुत्ते साथ लेकर चलनेवाले उस चांडाल ने जो बात समझाई वह है सनातन धर्म । अपने मार्ग में आनेवाले उस चांडाल को दूर होने के लिए जब शंकर ने कहा तब उसने जो प्रश्न पुछा उससे जो शंकर के चित्त में जो विद्रोह उठा उस वैराग्य का नाम सनातन धर्म है ? परंपरा को नकार कर अपने सनातन तेज से नित्यनुतन सिद्ध रह कर अंगभूत गुणोंसे चमकता रहता है वह है सनातन धर्म ! चांडाल ने पुछा, अन्नमयादन्नमयं चैतन्यमेव चैतन्यात्। यतिवर दूरी कर्तुं वाञ्छसि किं बहिर्गच्छ गच्छेति ॥ प्रत्यगवस्तुनि निस्तरंग सहजानन्दावबोधाम्बुधौ। विप्रोऽयं श्वपचोऽयमित्यपि महान् कोऽयं विभेद-भ्रम:॥ किंगंगाम्बुनि बिम्बतेऽम्बरमणौ चाण्डाल वीथी पय: पुरै। वान्तमस्ति कांचनघटे मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे॥ हे यति ! अन्नमयकोश (तेरा और मेरा शरीर अन्न से ही बना है, सृष्टी बनाने में भेद नही करती) और साक्षीचैतन्य (आत्मा) तुझ मे और मुझ मे एक ही है (यही अद्वैत विचार है)। ब्राह्मण और श्वपच (नीच जातवाला) भेदको वहा स्थान ही नही है। सूर्य का बींब गंगा में और मदिरा पात्र में समान रुप से प्रतिबिंबीत होता है न ? क्या सूर्य में कुछ फरक होता है ? गंगा में पडा है इसलिए पवित्र और मदिरा पात्र में पडा है इसलिए अपवित्र, क्या ऐसा होता है ? आत्मतत्त्व भी वैसा ही एक जैसा ही प्रतिबींबित होता है; उस में उचनीच का भाव नही है ! यह चांडाल, यह ब्राह्मण क्या यह भेद भ्रम नही है ? बोलो आचार्य ! क्या मेरी बात सही नही है ?
इस दिव्य भाषण को सुनकर आचार्य स्तिमित हुए। बोले, ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्र विस्तारितम्। सर्वं चैतदविद्ययां त्रिगुणया शेषं मया कलितम्॥ इत्थं यस्य दृढा मति: सुखतरे नित्ये परे निर्मले। चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम॥- हे चांडाल, मेरी सुन, सब ब्रह्म ही है। और सकल जग चिन्मात्राकाही विस्तार है। यह सब त्रिगुणात्मक अविद्याके कारण मैने कल्पित किया है। इस प्रकारसे जिसकी मति उस सुखैक, नित्य व निर्मल ऐसे श्रेष्ठ सद्वस्तूपर दृढ हुई है, फिर वह ब्राह्मण है या चांडाल वह साक्षात मेरे गुरुदेव ही है ऐसी मेरी दृढभावना है ! ऐसा कहकर आचार्य उस को नमस्कार करते है।
क्या यह उदात्त विचार सनातन धर्म नही है ? अगर है तो अपने आप को सनातन धर्मीय कहने वालो इस विचार को तुने पराजित कर दिया है ! जब आग की तपन उन दलित नन्हे बालकोंको और उनके माता पिता को झोपडे में जला रहि थी उसी वक्त तेरा यह विचार भी तुने उस अग्नि में जला कर भस्म कर डाला। अब बची है तेरे पुराणवादी धर्म की पराजय की राख। अपने उन्नत अहंकारी ललाट पर अब लगाओ उस राख को ! और चलते बनो ! तुम्हारे उन मिथ्या देवताओंके पिछे ! मानवरुपी भगवान को तो तुने जला डाला ..... मुझे माफ करना तुम्हारे तथाकथित धर्म का मै भागिदार नही हूँ, विद्रोह करता हूँ मैं तुम्हारे पुराणवादी उंचनीचवाले धर्म के विरोध में क्योंकी मैं सनातन धर्मीय हूँ।
(लेखन- दामोदर प्र. रामदासी)
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