समाधी साधन संजीवन नाम !
समाधी साधन संजीवन नाम । शांति दया सम सर्वां भूती॥(ज्ञानेश्वर 400) पृथ्वी और वर्षा का सृजन उत्सव जो अनेक संभावनाओंको जनम देता है सृष्टी में हो रहा है उसी समय जीव शिव एकत्व का अभिनव आनंदोत्सव वारी (अनेक प्रांतोसे संतोंकी पालकीयाँ पंढरपूर की ओर निकलती है।) समारोह उपासक के अंतरंग और बहिर्रंग में उपसनाकी बहार लाता है। साधन और साध्यरुप संजीवन नाम परा में (उपासक के गती के अनुसार नाम परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी से आता है।) स्थिर होने के कारण उपासक को साधनाका सार मिल जाता है। उपासना की नित्यनुतन यात्रा करनेवाला उपासक सद्गुरु कॄपासे केवल शांतिब्रह्म सिद्ध ही नही हो जाता पर उस अवस्थाका प्रसाद उसे मिलता है।
ऐसा कारुण्यमूर्ती सिद्ध समत्वके अधिष्ठान में स्थिर हो जाता है।
ओंकाररुपी नाम यह तो गौणी भक्तिकाही दर्शन है और गौणि भक्तीकी प्रेमोपासनासे समाधीकी गहनता में उपासक उतर जाता है। गौण्या तु समाधिसिद्धी:॥ नाम तो भगवान के साक्षात्कारकी अपेक्षा ज्यादा उपकारक और सामर्थ्यशाली है।
ज्ञानेश्वरी में भगवंत आश्वासित करते है,इस संसार में भक्तों का तारनहार मैं हूँ। मेरे ओर वह सहजतासे आ सके इसलिए मैने अनंत नामों से नौकाओं को बनाया है ताकी अकेले भक्त को भवसागर पार करने में धैर्य मिले । इस कारण मैने सहस्रावधी नौकाओं को बनाया है। जड, मूढ, अपंग ऐसे मेरे भक्तों को इस नाव में बिठाकर मैं उस पार ले जा रहा हूँ।
वेदो मे प्रकट हुए सारे महावाक्यों का उद्घोष उस ओंकारस्वरुप हरी नाम के सामने गौण ही सिद्ध होता है। ऐसी गर्जना स्वयं ज्ञानेश्वर करते है।- तत्त्वमस्यादि वाक्यउपदेश। नामाचा अर्धांश नाही तेथे॥ (ज्ञानेश्वर 431)
कर्मयोग-यज्ञयाग करने के लिए पुरोहित ब्राह्मण होना पडता है। उस के लिए भूमी, द्रव्य, कामनासिद्धी महत्त्वपूर्ण है, और तो और योग करने जाए तो तर्क का नर्क और चित्तभ्रष्ट होने का डर सताता है ! ज्ञानयुक्त मार्ग से चले तो साधनचतुष्टयसंपन्नता की आवश्यकता होती है और चित्त के दिनरात अखंड चलनेवाली क्रीया, मर्कटलीला छुटती नाही ऐसी हमारी अवस्था है। ऐसे में- कलियुगामाजि एक हरीनाम साचे। मुखे उच्चारीता पर्वत छेदी पापांचे॥ (1071) अर्थात कलियुग में हरी का नाम है जो पापों के ढेर, पर्वत नष्ट कर सकता है, ऐसा निश्चय संत एकनाथ महाराज देते है। अर्थात कलियुग तो कालसापेक्ष नहि है अपितु चित्तसापेक्ष स्थिती है।
चिंतन आसनी शयनी। भोजनी आणि गमनागमनी। सर्वकाळ निजध्यानी। चिंतन रामकृष्णाचे॥(1153, एकनाथ) अर्थात चिंतन, आसन, शयन शय्यापर, भोजन करते समय, आते जाते सारे समय में निजध्यान में रामकृष्ण का ही चिंतन करे ऐसे संत एकनाथ महाराज बताते है। पर इस अनुसंधान में सूक्ष्मयुक्ती है।
तस्य वाचक: प्रणव:॥ तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ (पातंजलयोग 1.27,28) भगवान पंतजली नाम लेने की विधी समझाते हुए उपासक को युक्ती देते है। वह ॐकार प्रणव ऐसा प्रसिद्ध है। ॐकार का जाप करो और उसपर ध्यान करो । केवल जाप करे यह बात नही कहते अपितु उसपर ध्यान लगाने केलिए कहते है।
मनोविश्लेषक मन के तीन स्तर बताते है- जागृत बोध (Conscious), अर्ध-जागृत बोध (Un Conscious), अजागृत बोध (Sub Conscious) । पर चौथा स्तर जिसे परमबोध या परमजागृती (Super Conscious) कहते है उस बारे में मात्र हमारे ऋषी और संतही बताते है। सतत जागरुक या सजगतासे नाम लेने से प्रथम तीन अवस्थांओं की जानकारी उपासक को होती ही है और वह चौथे पायदान तक आ जाता है। स्वयं की जागृत स्थिती, निद्रा और स्वप्न को देखने की क्षमता उसे आ जाती है बाद में तुर्या यह चतुर्थ द्वार खुल जाता है। इस कारण जाप, ध्यान के बिना किया तो अर्धजागृती में वह पहुँच तो जाता हैे, अच्छी नींद भी आती है और वैसेही वह आगे बढता रहा, मंत्र जाप करता रहा तो अजागृत बोध में भी उतर जाता है फिर एक प्रकारकी मोहनिद्रा से वह ग्रसित हो जाएगा, पर यह तो ध्यान नही हो सकता।
नाम का नाद इतना मधुर होता है की उस नाद में वैखरी, मध्यमा उलझ गयी है, सजग उपासक सारी संवेदनाओं के प्रती सजग है, ऐसे समय शरीर, मज्जासंस्था को वह नाद शिथील कर देता है पर उपासक को नही। वह जागृकता, वह ध्यान परमजागृती में उसे लेकर जाता है, पश्यंती में, परा में। वहा अनाहत प्रकट होता है। ध्याता, ध्येय की एकरुपता में विलक्षण संजीवन अवस्था है, परमजागृतीकी !
अकेला उपासक नाम की नौका में उत्साहापूर्वक, ध्यानमय अर्थात सजगतासे आसनस्थ होता है तब मन के अलग अलग स्तर उस हरी नाम में रंग जाते है॥ अराजक मन, प्रक्षुब्ध चित्त, हतप्रभ प्रज्ञा एवं जडाश्रित अहंतासे चेतना अलग होने के कारण धर्मप्रकाश में वह उपासक नहा लेता है। यही उस नामधारक का सप्रेम ध्यान है। यह मधुकंपन आनंदके निरवय अवस्था की ओर, प्रासादीकता के स्तर तक जाकर सायुज्यमंदिर (सलोकता, समीपता, स्वरुपता और सायुज्यता ऐसी चारमुक्तियाँ है।) में भगवान से एक हो जाता है। सारा शरीर तटस्थ होकर भावसमाधी में निमग्न हो जाता है। फिर वैश्विक संवेदना प्राप्त हुआ वह उपासक अंत में गाता है की उस परब्रह्म विठ्ठल का चिंतन ही मैने किया है ।
सावले विठ्ठल रुप दर्शन की चाह ने अष्टसात्त्विक भाव दशाप्राप्त सरल, सुशील, सद्धर्म्य, सानुरागकंपीत विरागी वारकरीकी चित्तदशा समाधीस्थ हो जाती है। वारी में नाचते, गाते समय शारीरमनोसंवेदनाओं के प्रती अतिसजग हुए अंतर्मुखी, ध्यानमय नामौपासक वारकरी शरीर से भुवैकुंठ पंढरपूर और चेतना के स्तर पर अपने भीतर का वैकुंठ सहजही पा लेता है , या ऐसे कह सकते है की भगवंतही नाम की नाव में उसे बिठाकर सहजतासे लेकर जाते है। उतरलो पार। सत्य झाला हा निर्धार॥ (तुकाराम 402) अर्थात अब भवसागर पार हो गया है और उस सत्यमय अवस्था का लाभी मैं हो गया हूँ ऐसे संत तुकाराम की तरह उपासक बोलता है। जय हरी !
ओंकाररुपी नाम यह तो गौणी भक्तिकाही दर्शन है और गौणि भक्तीकी प्रेमोपासनासे समाधीकी गहनता में उपासक उतर जाता है। गौण्या तु समाधिसिद्धी:॥ नाम तो भगवान के साक्षात्कारकी अपेक्षा ज्यादा उपकारक और सामर्थ्यशाली है।
ज्ञानेश्वरी में भगवंत आश्वासित करते है,इस संसार में भक्तों का तारनहार मैं हूँ। मेरे ओर वह सहजतासे आ सके इसलिए मैने अनंत नामों से नौकाओं को बनाया है ताकी अकेले भक्त को भवसागर पार करने में धैर्य मिले । इस कारण मैने सहस्रावधी नौकाओं को बनाया है। जड, मूढ, अपंग ऐसे मेरे भक्तों को इस नाव में बिठाकर मैं उस पार ले जा रहा हूँ।
वेदो मे प्रकट हुए सारे महावाक्यों का उद्घोष उस ओंकारस्वरुप हरी नाम के सामने गौण ही सिद्ध होता है। ऐसी गर्जना स्वयं ज्ञानेश्वर करते है।- तत्त्वमस्यादि वाक्यउपदेश। नामाचा अर्धांश नाही तेथे॥ (ज्ञानेश्वर 431)
कर्मयोग-यज्ञयाग करने के लिए पुरोहित ब्राह्मण होना पडता है। उस के लिए भूमी, द्रव्य, कामनासिद्धी महत्त्वपूर्ण है, और तो और योग करने जाए तो तर्क का नर्क और चित्तभ्रष्ट होने का डर सताता है ! ज्ञानयुक्त मार्ग से चले तो साधनचतुष्टयसंपन्नता की आवश्यकता होती है और चित्त के दिनरात अखंड चलनेवाली क्रीया, मर्कटलीला छुटती नाही ऐसी हमारी अवस्था है। ऐसे में- कलियुगामाजि एक हरीनाम साचे। मुखे उच्चारीता पर्वत छेदी पापांचे॥ (1071) अर्थात कलियुग में हरी का नाम है जो पापों के ढेर, पर्वत नष्ट कर सकता है, ऐसा निश्चय संत एकनाथ महाराज देते है। अर्थात कलियुग तो कालसापेक्ष नहि है अपितु चित्तसापेक्ष स्थिती है।
चिंतन आसनी शयनी। भोजनी आणि गमनागमनी। सर्वकाळ निजध्यानी। चिंतन रामकृष्णाचे॥(1153, एकनाथ) अर्थात चिंतन, आसन, शयन शय्यापर, भोजन करते समय, आते जाते सारे समय में निजध्यान में रामकृष्ण का ही चिंतन करे ऐसे संत एकनाथ महाराज बताते है। पर इस अनुसंधान में सूक्ष्मयुक्ती है।
तस्य वाचक: प्रणव:॥ तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ (पातंजलयोग 1.27,28) भगवान पंतजली नाम लेने की विधी समझाते हुए उपासक को युक्ती देते है। वह ॐकार प्रणव ऐसा प्रसिद्ध है। ॐकार का जाप करो और उसपर ध्यान करो । केवल जाप करे यह बात नही कहते अपितु उसपर ध्यान लगाने केलिए कहते है।
मनोविश्लेषक मन के तीन स्तर बताते है- जागृत बोध (Conscious), अर्ध-जागृत बोध (Un Conscious), अजागृत बोध (Sub Conscious) । पर चौथा स्तर जिसे परमबोध या परमजागृती (Super Conscious) कहते है उस बारे में मात्र हमारे ऋषी और संतही बताते है। सतत जागरुक या सजगतासे नाम लेने से प्रथम तीन अवस्थांओं की जानकारी उपासक को होती ही है और वह चौथे पायदान तक आ जाता है। स्वयं की जागृत स्थिती, निद्रा और स्वप्न को देखने की क्षमता उसे आ जाती है बाद में तुर्या यह चतुर्थ द्वार खुल जाता है। इस कारण जाप, ध्यान के बिना किया तो अर्धजागृती में वह पहुँच तो जाता हैे, अच्छी नींद भी आती है और वैसेही वह आगे बढता रहा, मंत्र जाप करता रहा तो अजागृत बोध में भी उतर जाता है फिर एक प्रकारकी मोहनिद्रा से वह ग्रसित हो जाएगा, पर यह तो ध्यान नही हो सकता।
नाम का नाद इतना मधुर होता है की उस नाद में वैखरी, मध्यमा उलझ गयी है, सजग उपासक सारी संवेदनाओं के प्रती सजग है, ऐसे समय शरीर, मज्जासंस्था को वह नाद शिथील कर देता है पर उपासक को नही। वह जागृकता, वह ध्यान परमजागृती में उसे लेकर जाता है, पश्यंती में, परा में। वहा अनाहत प्रकट होता है। ध्याता, ध्येय की एकरुपता में विलक्षण संजीवन अवस्था है, परमजागृतीकी !
अकेला उपासक नाम की नौका में उत्साहापूर्वक, ध्यानमय अर्थात सजगतासे आसनस्थ होता है तब मन के अलग अलग स्तर उस हरी नाम में रंग जाते है॥ अराजक मन, प्रक्षुब्ध चित्त, हतप्रभ प्रज्ञा एवं जडाश्रित अहंतासे चेतना अलग होने के कारण धर्मप्रकाश में वह उपासक नहा लेता है। यही उस नामधारक का सप्रेम ध्यान है। यह मधुकंपन आनंदके निरवय अवस्था की ओर, प्रासादीकता के स्तर तक जाकर सायुज्यमंदिर (सलोकता, समीपता, स्वरुपता और सायुज्यता ऐसी चारमुक्तियाँ है।) में भगवान से एक हो जाता है। सारा शरीर तटस्थ होकर भावसमाधी में निमग्न हो जाता है। फिर वैश्विक संवेदना प्राप्त हुआ वह उपासक अंत में गाता है की उस परब्रह्म विठ्ठल का चिंतन ही मैने किया है ।
सावले विठ्ठल रुप दर्शन की चाह ने अष्टसात्त्विक भाव दशाप्राप्त सरल, सुशील, सद्धर्म्य, सानुरागकंपीत विरागी वारकरीकी चित्तदशा समाधीस्थ हो जाती है। वारी में नाचते, गाते समय शारीरमनोसंवेदनाओं के प्रती अतिसजग हुए अंतर्मुखी, ध्यानमय नामौपासक वारकरी शरीर से भुवैकुंठ पंढरपूर और चेतना के स्तर पर अपने भीतर का वैकुंठ सहजही पा लेता है , या ऐसे कह सकते है की भगवंतही नाम की नाव में उसे बिठाकर सहजतासे लेकर जाते है। उतरलो पार। सत्य झाला हा निर्धार॥ (तुकाराम 402) अर्थात अब भवसागर पार हो गया है और उस सत्यमय अवस्था का लाभी मैं हो गया हूँ ऐसे संत तुकाराम की तरह उपासक बोलता है। जय हरी !
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वारी के निमित्त अक्षरसेवा- दामोदर प्रकाश रामदासी, पुणे.
लेखक परिचय- सद्गुरु समर्थ रामदासस्वामी के पट्टशिष्य योगीराज कल्याणस्वामी शिष्यपरंपरा में नवगणराजुरी (जिला बीड, महाराष्ट्र) मठ के महंत, भारतीय आध्यात्मिक विचार दर्शन के व्याख्याता, प्रवचनकार है। आपका स्वामी विवेकानंदजी की जीवनीपर योद्धा संन्यासी यह सोलो प्ले प्रसिद्ध है।
अधिक जानकारी के लिए - www.humanexcellencefoundation.in
नाटक की झलक देखने के लिए देखे-
नाटक की झलक देखने के लिए देखे-
https://www.youtube.com/watch?v=FzDnzHTc11k
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