विवेक, वैराग्य, अभ्यास !
शुभ ही जिसका अचेतन मन है वही ऋषि है। चेतन मन एक टका तो नौ टका अचेतन मन होता है। जो मानवी मन का बडा शक्तिशाली भाग है। अंतर्यात्राको शुरुवात करने से पूर्व उपासक को शरीर-मन का ज्ञान आवश्यक है। अचेतन मन का रखरखाव बदलनेसे आगे की प्रगती आसान हो जाती है।
जन्मजन्मांतर के बुरेभले संस्कार, इच्छांओं का भंडार यह मन- प्रमाण (किसी भी विषय का सम्यक ज्ञान), विपर्यय (मन की संदेही नकारात्मक शक्ति), कल्पना, निद्रा, स्मृती इस पाच शक्तिंयोंका अधिष्ठान है। जब वह पूर्णत: सकारात्मक (उत्साही एवं प्रसन्न) और ध्यानस्थ (अखंड अनुसंधान) होता है तब जगनेवाली सम्यक ज्ञान की शक्ति अभ्युदय (प्रापंचिक उत्कर्ष) एवं नि:श्रेयस (पारमार्थिक सिद्धी) दोनो क्षेत्र में बिना रुकावट यश देती है। इस कारण सुख के लिए सम्मान की भावना, उत्साही प्रवृत्ती उपासकको बनाए रखना अपरिहार्य होता है। उत्साह की कल्पना, सकारात्मक विचार इनकी सतत पुनरावृत्ती अचेतन मन को बदल देती है। मस्तिष्क पर होकारात्मकता चिन्हांकित होती है। व्यक्ति, विचार या घटना की ओर देखनेकी दोषदृष्टि वा निंदात्मक नकारात्मक अभिव्यक्ति बदल देनी आवश्यक हो जाती है। मन का सतत बहनेवाला प्रवाह, वहा कुछ अशुभ आया तो किंचीत ठहरना जरुरी है तो शुभं आया तो उस पर तुरंत अंमल करना जरुरी है। जैसे क्रोध आते ही पांच दीर्घ श्वास लेने से नियंत्रण में आता है , वह श्वास क्रोधको शांत करती है। अगर प्रेम जागृत होता है तो उसका तुरंत विस्तार होने देना इष्ट होता है। ऐसे करते करते अंतर्मन की स्थिती बदलती है।
फिर स्वप्नोंका ढंग बदलता है, निद्राकी गुणात्मकता बढती है, कल्पनाकी उडान उत्साहीत बनाती है। शुरुवाती कठिण दौर बीतने के बाद जिस तरह दुसरा विचार करते हुए भी ड्रायव्हर अपनेआप गाडी चलाते रहता है उसी तरह उपासक उत्साहीच रहता है। ऐसे अचेतन मन सक्रिय होते ही अगली पायदान पर हम पहुंच जाते है, वह है, अभ्यास !
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ गीता- 6.35 अंतर्यात्रा की शुरुवात होते ही अभ्यास (अखंड आंतरिक सराव) शुरु हो जाता है। गीता में भगवंत वैराग्य के पहले अभ्यास का महत्त्व बतलाते है। अभ्यास याने स्वभाव को अनुकुल ऐसा एखाद विधी चुनना जिस के कारण आंतरिक जगत में प्रवेश करना आसान हो जाता है। अंतर्मुखता बढती है। भक्तियोगी नाम-भजन में नाचने लगता है तो कोई निर्गुणवादी अजपा या संवेदनाओंका आधार लेता है। कोई आसन, मुद्रा, बंध लगाता है तो कोई कर्म को ही भगवान कहता है।
विषयसंगसे निर्माण होनेवाला गुणात्मक कार्य यही विवेक के शुद्ध या अशुद्ध रुप का कारण बनता है, उस समय स्वीकार करते रजतमात्मक विषयों के कारण विवेकका स्खलन हो सकता है। इस कारण भगवंत वैराग्य के साथ विवेक के बजाए अभ्यास अर्थात यौगिक क्रिया को बताते है। भगवान ज्ञानेश्वर माऊली को भी संसार शुन्य करने के बजाए उसे हरिप्रत्ययरुपी पूर्णानुभाव से जितना यही वैराग्य का परिणाम चाहिए।
प्रखर वैराग्य, अनुभव का ज्ञान और भगवद्भजन का पुण्यप्रताप इससे शुद्ध हुआ विवेक फिर वैराग्य, उपासक को पावन करता है ऐसे सद्गुरु रामदासस्वामी कहते है अन्यथा दिशाहिन दशा ऐसा कहना उचीत होगा।
इस कारण वैराग्य परिस्थिती को निर्माण करता है तो अखंड अभ्यास उस परिस्थिती में उपयोग करने का तंत्र है। प्रत्येक कृती इच्छांए होती है। इच्छाओं को समाप्त करने के लिए विवेक मित्र बन जाता है। तर्कके आधारपर, मन के साथ सतत संवाद साधके प्रगल्भताका अत्युच्च स्तर याने अचेतन मन बदलनेका महतपराक्रम विवेक करता है। वैराग्यसे निर्माण हुई एक भावजन्य परिस्थिती का उपयोग कैसे करे इसकी प्रेरणा सतत विवेक देता रहता है। विवेक याने म्हणजे एक आलाराम घडी है। पुराने संस्कार जगते ही वह उपासकको जगाता है। इच्छा ना करना या संकल्पविहिनता इस अवस्था में उपासक को लाना विवेक का कार्य है।
मेरा आनंद अब किसी पर भी निर्भर नही है ऐसी भावस्थिती याने वैराग्य ! संसार में उपासक व्यक्ति, घटना, कोई चीज चुन सकता है पर उसका विवेक और वैराग्य उसे आसक्त नही होने देते। चुनाव करो पर आसक्त ना हो। अनासक्त बनो ! ऐसे रात दिन स्मरण कराता रहता है। कोई विधी, अभ्यास का मूल स्वकेंद्रस्थ होना है। जो कुछ हो रहा है उससे तत्काल प्रभावित न होते हुए स्वकेंद्रस्थ, तटस्थ, अनासक्त होकर देखना, और फिर निर्णय लेना उचीत होता है। स्थिरवृत्तीका चष्मा जगत का यथार्थ दर्शन करवाता है।
सादर सपर्मण के साथ निरंतर, सतत, अबाधीत सजगताके अभ्यास के कारण अपने में प्रतिष्ठीत हुई चीज ही अभ्यास है। सामरस्य-समसाम्य यही अंतिम बोध है, इस कारण संसार नष्ट करना यह क्रिया अपेक्षित नही है, संसार आत्मैव एतद् ऐसा अनुभव करना और उसे सुख पूर्वक करना ही ध्येय है। अंत में Be old, when young, that you may be young when you grow old. यही वैराग्य का बोध है।
शुभ ही जिसका अचेतन मन है वही ऋषि है। चेतन मन एक टका तो नौ टका अचेतन मन होता है। जो मानवी मन का बडा शक्तिशाली भाग है। अंतर्यात्राको शुरुवात करने से पूर्व उपासक को शरीर-मन का ज्ञान आवश्यक है। अचेतन मन का रखरखाव बदलनेसे आगे की प्रगती आसान हो जाती है।
जन्मजन्मांतर के बुरेभले संस्कार, इच्छांओं का भंडार यह मन- प्रमाण (किसी भी विषय का सम्यक ज्ञान), विपर्यय (मन की संदेही नकारात्मक शक्ति), कल्पना, निद्रा, स्मृती इस पाच शक्तिंयोंका अधिष्ठान है। जब वह पूर्णत: सकारात्मक (उत्साही एवं प्रसन्न) और ध्यानस्थ (अखंड अनुसंधान) होता है तब जगनेवाली सम्यक ज्ञान की शक्ति अभ्युदय (प्रापंचिक उत्कर्ष) एवं नि:श्रेयस (पारमार्थिक सिद्धी) दोनो क्षेत्र में बिना रुकावट यश देती है। इस कारण सुख के लिए सम्मान की भावना, उत्साही प्रवृत्ती उपासकको बनाए रखना अपरिहार्य होता है। उत्साह की कल्पना, सकारात्मक विचार इनकी सतत पुनरावृत्ती अचेतन मन को बदल देती है। मस्तिष्क पर होकारात्मकता चिन्हांकित होती है। व्यक्ति, विचार या घटना की ओर देखनेकी दोषदृष्टि वा निंदात्मक नकारात्मक अभिव्यक्ति बदल देनी आवश्यक हो जाती है। मन का सतत बहनेवाला प्रवाह, वहा कुछ अशुभ आया तो किंचीत ठहरना जरुरी है तो शुभं आया तो उस पर तुरंत अंमल करना जरुरी है। जैसे क्रोध आते ही पांच दीर्घ श्वास लेने से नियंत्रण में आता है , वह श्वास क्रोधको शांत करती है। अगर प्रेम जागृत होता है तो उसका तुरंत विस्तार होने देना इष्ट होता है। ऐसे करते करते अंतर्मन की स्थिती बदलती है।
फिर स्वप्नोंका ढंग बदलता है, निद्राकी गुणात्मकता बढती है, कल्पनाकी उडान उत्साहीत बनाती है। शुरुवाती कठिण दौर बीतने के बाद जिस तरह दुसरा विचार करते हुए भी ड्रायव्हर अपनेआप गाडी चलाते रहता है उसी तरह उपासक उत्साहीच रहता है। ऐसे अचेतन मन सक्रिय होते ही अगली पायदान पर हम पहुंच जाते है, वह है, अभ्यास !
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ गीता- 6.35 अंतर्यात्रा की शुरुवात होते ही अभ्यास (अखंड आंतरिक सराव) शुरु हो जाता है। गीता में भगवंत वैराग्य के पहले अभ्यास का महत्त्व बतलाते है। अभ्यास याने स्वभाव को अनुकुल ऐसा एखाद विधी चुनना जिस के कारण आंतरिक जगत में प्रवेश करना आसान हो जाता है। अंतर्मुखता बढती है। भक्तियोगी नाम-भजन में नाचने लगता है तो कोई निर्गुणवादी अजपा या संवेदनाओंका आधार लेता है। कोई आसन, मुद्रा, बंध लगाता है तो कोई कर्म को ही भगवान कहता है।
विषयसंगसे निर्माण होनेवाला गुणात्मक कार्य यही विवेक के शुद्ध या अशुद्ध रुप का कारण बनता है, उस समय स्वीकार करते रजतमात्मक विषयों के कारण विवेकका स्खलन हो सकता है। इस कारण भगवंत वैराग्य के साथ विवेक के बजाए अभ्यास अर्थात यौगिक क्रिया को बताते है। भगवान ज्ञानेश्वर माऊली को भी संसार शुन्य करने के बजाए उसे हरिप्रत्ययरुपी पूर्णानुभाव से जितना यही वैराग्य का परिणाम चाहिए।
प्रखर वैराग्य, अनुभव का ज्ञान और भगवद्भजन का पुण्यप्रताप इससे शुद्ध हुआ विवेक फिर वैराग्य, उपासक को पावन करता है ऐसे सद्गुरु रामदासस्वामी कहते है अन्यथा दिशाहिन दशा ऐसा कहना उचीत होगा।
इस कारण वैराग्य परिस्थिती को निर्माण करता है तो अखंड अभ्यास उस परिस्थिती में उपयोग करने का तंत्र है। प्रत्येक कृती इच्छांए होती है। इच्छाओं को समाप्त करने के लिए विवेक मित्र बन जाता है। तर्कके आधारपर, मन के साथ सतत संवाद साधके प्रगल्भताका अत्युच्च स्तर याने अचेतन मन बदलनेका महतपराक्रम विवेक करता है। वैराग्यसे निर्माण हुई एक भावजन्य परिस्थिती का उपयोग कैसे करे इसकी प्रेरणा सतत विवेक देता रहता है। विवेक याने म्हणजे एक आलाराम घडी है। पुराने संस्कार जगते ही वह उपासकको जगाता है। इच्छा ना करना या संकल्पविहिनता इस अवस्था में उपासक को लाना विवेक का कार्य है।
मेरा आनंद अब किसी पर भी निर्भर नही है ऐसी भावस्थिती याने वैराग्य ! संसार में उपासक व्यक्ति, घटना, कोई चीज चुन सकता है पर उसका विवेक और वैराग्य उसे आसक्त नही होने देते। चुनाव करो पर आसक्त ना हो। अनासक्त बनो ! ऐसे रात दिन स्मरण कराता रहता है। कोई विधी, अभ्यास का मूल स्वकेंद्रस्थ होना है। जो कुछ हो रहा है उससे तत्काल प्रभावित न होते हुए स्वकेंद्रस्थ, तटस्थ, अनासक्त होकर देखना, और फिर निर्णय लेना उचीत होता है। स्थिरवृत्तीका चष्मा जगत का यथार्थ दर्शन करवाता है।
सादर सपर्मण के साथ निरंतर, सतत, अबाधीत सजगताके अभ्यास के कारण अपने में प्रतिष्ठीत हुई चीज ही अभ्यास है। सामरस्य-समसाम्य यही अंतिम बोध है, इस कारण संसार नष्ट करना यह क्रिया अपेक्षित नही है, संसार आत्मैव एतद् ऐसा अनुभव करना और उसे सुख पूर्वक करना ही ध्येय है। अंत में Be old, when young, that you may be young when you grow old. यही वैराग्य का बोध है।
जय हरि !
लेखक - दामोदर प्रकाश रामदासी, पुणे
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