Wednesday, July 13, 2016

तेरा तो यहाँ कछु नहीं रे। रामदास कहे ॥ (हिंदी)

तेरा तो यहाँ कछु नहीं रे। रामदास कहे ॥ (हिंदी)
मुमुक्षा के तीन स्तर

    हम भाग रहे है पर कही पहुँचते नही। जीवनका हिसाब करते समय संसारके चार-दो सुख दुख की बातोंसिवाय हात क्या लगता है ? भीतर गहनता में एक रिक्तता अनुभव में आती है। जीवनका संध्या समय याने पश्‍चात्ताप लगता है और ... डर कभी समाप्त नही होता।
    इस भवसागर के भोगतटपर अनेक युगोंसे शांति-समाधान की भीक मांगता हुआ जीव खडा है। आशा और निराशा के द्वंद्व फसां रहे है, सतत फसता हुआ जीव अभिलाषासे खडा है ! भोगसुख से भिगोया हुआ जीव ना जाने कितनी बार रोमांचित नही हुआ ? पर भीतर रुखेपन को अनुभव करता है। अनंत समय गया, पर शांतीके स्वरोंकी गुनगुन, सुख की रुणझुन अनुभव में नही आयी और पश्‍चात्ताप लगने लगा। अब बस बहुत हुआ ! इस भावनासे उसका मन और चित्त भर गया।
    वर्तमान स्थिती के विषयों से तादात्म्य होनेवाला, संस्कारबद्ध, स्मृतिमय, जड, वस्तुनिष्ठ ऐसा मन यह एक वस्तुतंत्र है और किसी भी समय और जगह में भाव के साथ एकरुप होनेवाला, वृत्तिविशेष ऐसा चित्त यह द्रव्यतंत्र आहे ।
    ऐसे चित्त को दुसरे किनारे का आकर्षण लगने लगता है। बद्धता की शृंखलाओं को तोडकर मुक्त होने के लिए वह तडपता है और फिर शुरु हो जाती है एक यात्रा । उस सत्यशोधक चित्त में शुरुआती कौतुहल की भावना संदेहमय होती है, पर मारापीटा गया वह बेचारा मन इस अज्ञात के कृष्णविवर में उतरने को राजी हो जाता है यह भी उस अनंत की ही कृपा है ! वह कभी भटकता है, जिज्ञासा के आहोश में अनेक प्रश्‍नही पुछता है पर केवल कौतुहल से क्या भगवंत मिलता है ?
    विठ्ठल की दिशा में उसकी वारी याने यात्रा चालु रहती है। पाँव रुकते नही। गरमी, बारीश सहन करता हुआ, तीव्र जिज्ञासु चलता रहता है। बौद्धिक पांडित्य अंतर्मन को व्याप्त करता है पर उससे क्या होगा ? जबतक वह वारकरी, उपासक मस्तक से संबंधीत है तबतक विठ्ठल दूरही है। पर सद्गुरुकृपा से चलना रुकता नहीं। अंत में गहनता में चेतना अवतीर्ण होती है। विठ्ठल जीवनमरण का प्रश्‍न बन जाता है। विठ्ठल को उपासक ‘संपूर्ण’ चाहिए। आधाअधुरा नही। केवल मस्तिष्क से नही वरन हृदय के साथ चाहिए।
    मस्तक से हृदय में उतरनेवाला बद्ध मुमुक्षु उपासक बन जाता है। अनासक्त होने की तीव्र भावना याने मुमुक्षा ! संसारचक्र से बाहर छुटनेकी छटपटाहट याने मुमुक्षा ! पर इस में भी शुरुआती दौर में वह एकतृतीयांश शक्ति ही लगाता है। क्यों की पुराने संस्कार छुटे नही छुटते, कुछ सफलता हात लगी है ऐसा लगता है। ऐसा उपासक अस्वस्थ नही होता पर शांत भी नही होता। संसार से छुटा हुआ पर अभी परमार्थ भी नही मिला है ऐसी स्थिती उसकी बनी रहती है। सत्प्रवृत्त पर निस्तेज ! काटे निकल गए पर फुल अभी खिले नही ऐसी संतप्तग्रस्त भावदशा में वह आ जाता है। उसे देखकर यह तो पता चल जाता है की थोडा कुछ तो मिला है पर यह भी पता चलता है की अभी कुछ मिलना भी बाकी है। उसके सान्निध्य में, वह चिढता नही पर क्षमा भी नही करता। ऐसा उपासक हमारी ऊर्जाका शोषण करता है। ऐसे अनेक संन्यासीयों के बारे में अनुभव में आता है। ऐसी अवस्था के तिबेटी लामा को गाव में आने नही देते। हिमालय में इस अवस्था के हिंदु संन्यासी को वृक्ष को स्पर्श नही करने देते। कारण वह वृक्ष उस स्पर्श से मर जाता है।  ऐसे लामा और संन्यासीओं के लिए एकांत में अलग मठ बनाए जाते है। समुद्र के अकेले द्वीप के समान ऐसे उपासकोंकी मोक्ष की भावना शुरुआती दौर में मृदु होती है ऐसे पतंजली कहते है।- मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततोऽपि विशेष:॥ समाधीपाद 1.22 ॥ अर्थात मृदु, मध्य और तीव्र यह तीन अवस्थाँए है ।
    पर उस वारी में याने अंतर्यात्रा में संत समागम उसकी प्रेरणा बन जाता है। उसे मार्ग दिखाता है। संतांचे संगती मनोमार्ग गती। (ज्ञानेश्‍वर 744. हरिपाठ) और वारी आगे चलती रहती है। फिर उपासना में दो तृतीयांश शक्ती लगानेवाला मुमुक्षु उपासक बाद में पर्वतशिखरों जैसा शांत होता चला जाता है। चंचल मनोदशा धीरेधीरे स्थिर होती जाती है । उसके सान्निध्य में वह अद्भुत शांती हमें भी विभोर कर देती है। जैसे बगीचे में फुलोंकी सुगंध आती है वैसे । जैसे वह रेगिस्तान से हरियाली में आया हुआ हो। और इसकी अक्षरश: प्रतीती हमे आती है। पर यह रहस्यमयी शांती भी घुँघट के समान होती है। जैसे कुछ अभी भी छुपा हुआ हो। वहा रसधार या उत्सव नही होता, चिद्विलास नही होता ! पतंजली इसे मध्य मुमुक्षा कहते है। पर वह शांती भी अब परमानंदमय पंढरपूर यही कही पास में है इसका प्रतीक होती है।
    मुमुक्षा के अंतीम अवस्था में सर्वस्व का समर्पण हो जाता है। उस यात्रा के अंतीम पडाव की दौड तीव्र गतीसे शुरु हो जाती है। इसी नशा में अपनेआप नर्तन और कीर्तन शुरु हो जाता है। किसी पागल के समान धुंद! भीतर की चंद्रभागा नदी तुफान मचा देती है। उसी में स्नान कर वह वारकरी उपासक सुस्नात हो जाता है। इस आनंद के चिन्ह याने भक्तिरुपी गोपीचंदन तिलक और वैराग्यरुपी काले रंगका टीका उसके भालप्रदेश की शोभा बन जाता है। इस आनंद का वर्णन करु तो कैसे करु?
    एकादशीको एकही दशा याने अवस्था का लाभ हुआ भक्त भगवान विठ्ठल के मंदिर के पूर्व दिशा के महाद्वार में खडा है, दर्शन करके उसे पश्‍चिम द्वार से बाहर जाना है। सद्गुरु उसे पश्‍चिम द्वार से अर्थात निर्गुण अवस्था की ओर ले जा रहे है। पश्‍चिम का क्षितीज तो हृदय है। चित्कला जगदंबा कुंडलिनी हृदयचक्र में आते ही ‘अहं’ का भाव अस्त हो जाता है, और वहा उसका स्वरुप भक्तवर हनुमानजी ‘विरलोदय भाव’ इस संज्ञा को प्राप्त हो जाता है। इस कारण हनुमान तत्त्व भक्ति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है।
    समर्पण का भाव जहाँ समर्पित हाता है ऐसी एकही दशा याने एकादशी ! इस एकादशीको वह ‘हनुमान’ दशा प्राप्त होने के लिए महाद्वार में खडे उस भक्त को पश्‍चिमद्वार की ओर जाते समय बीच में पितांबर परिधान किए हुए, कटीपर हात और जिनके कोमल नेत्रद्वय चरणों की ओर झुके हुए है, कारण वह भक्त सर्वभाव या अंतिम अवस्था का बचा हुआ सूक्ष्म अहंकार याने अस्मिता, या पुन:पुन: जनम देनेवाले बीज, उन चरणों में समर्पित करता है, उस भक्त की सबीज समाधी का यह लाडदुलार देखनेवाले भगवान विठ्ठल मिल जाते है। वह सांवला सगुण परमात्मा भक्त को पश्‍चिम की ओर जाते समय बीच में ही रोकता है, और प्रेमपूर्ण संगोष्ठीयाँ दोनो में होने लगती है।
    वैसे देखा जाए तो पश्‍चिम द्वार का वह निर्गुण परमात्मा अखंड वारीरुपी तपश्‍चर्या करके थकेमाँदे भक्त को आलिंगन देने के लिए सगुणरुप में दौडता हुआ आता है। तबतक वह भक्त भी गर्भगृहतक आ जाता है। उस मंदिर में भक्त को भगवान आलिंगन देते है यही है भगवान विठ्ठल का राउळ याने मंदिर अर्थात भक्त के हृदय में हुआ सगुण दर्शन ! और इस आलिंगन के बिना पश्‍चिमद्वार तक भक्त नही जा सकता। ! कारण वह द्वार पिछे की ओर है। सद्गुरु इस उत्सव को देखते हुए वही खडे रहते है।
      फिर वह उपासक अभक्त नही हो सकता ऐसा भक्त बन जाता है। वह भक्त याने विश्‍व की प्रसन्न अभिव्यक्ति ! वह भक्त याने विश्‍वप्रेम का सजीव साक्षात्कार ! उस मंदिर में उसकी वारी याने उपासनाकी यात्रा सुफल संपूर्ण हो गयी !
जय हरी विठ्ठल !
लेखक - दामोदर प्र. रामदासी

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