Saturday, October 29, 2016

भगवान महावीर निर्वाण दिन (आश्‍विन अमावास्या) (हिंदी)

भगवान महावीर निर्वाण दिन (आश्‍विन अमावास्या)
    भारत में निर्माण हुए आध्यात्मिक विचार को सनातन धर्म या हिंदू धर्म कहते है। वैदिक, बौद्ध, जैन, सिख ऐसे अनेक पंथ उपपंथो ने इस आध्यात्मिक विचार को समृद्ध किया। दु:ख से मुक्ति या निर्वाण के लिए अनेक विधीयाँ दि। इस कार्य के लिए विशेष क्रांतीकारक चेतना अवतरीत हुई, जिन्होने इस अध्यात्मगंगा को लोकहृदय में उस काल की भाषा में प्रतिष्ठीत किया । ऐसी चेतनाओं में एक महान चेतना हुई भगवान महावीर !
    किसी समय में एकही पिता के दो पुत्रो में से एक राष्ट्ररक्षण के लिए शस्त्र उठानेवाला क्षत्रिय होता था तो दुसरा वेदमंत्र जाननेवाला ब्राह्मण । दु:खमुक्त करनेवाली विधी एवं पंथ (मार्ग) अलगअलग होते थे पर व्यक्तिको उसका अंतीम सत्य दिखलानेवाला, सनातनत्वका स्मरण करा देनेवाला, पुनर्जन्म-पूर्वजन्म सिद्धांतको माननेवाला, उपासना में ओंकारकी अनुभूति देनेवाला, कर्म सिद्धांत स्वीकार करनेवाला एकही सनातन धर्म था। सनपूर्व 15 वी सदी में कुरुपांचाल की भूमी में ब्राह्मण, क्षत्रिय ऐसा भेद शुरु हुआ था।
    भगवान श्रीकृष्ण के (जो जैनों के अगले कल्प में पहले तीर्थंकर होंगे) चचेरेभाई घोर अंगिरस (यदुकुल के श्रेष्ठ पुरुष दशार्ह-अग्रज समुद्रविजय इनकी रानी शिवादेवी इनके गर्भसे श्रावण शुक्ल पंचमीको जन्म) जिन्होने मुक्ति के लिए अहिंसावादी जैन पंथ का स्वीकार किया और केवलज्ञान प्राप्त करके भगवान नेमीनाथ इस नाम से 22 वे तीर्थंकर होकर प्रसिद्ध हुए। इसी बहाने यदुकुल में ब्राह्मण और श्रमण परंपराका मिलन हुआ ऐसा कहना अनुचित नही होगा । उनके बाद जैन परंपरा में सनपूर्व 599-527 के बीच में 24 वे तीर्थंकर भगवान वर्धमान महावीर हुए। जिनकी अश्‍विन अमावस्या यह तिथी (दिवालीका लक्ष्मीपुजनका दिन) महानिर्वाण दिन से पहचाना जाता है।
    बिहार राज्य में वैशालीके पास कुंडग्राम में (वसाढ) क्षत्रिय कुल में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला इनके गर्भसे चैत्र शुद्ध त्रयोदशी को इनका जन्म हुआ। वैशाली महत्त्वपूर्ण गणराज्य था। मगध, कोसल, वत्स और अवंती इन विशाल गणराज्यों के समान वह बडा था। माँबाप ने वर्धमान नाम रख दिया तो वीरवृत्ती के कारण वे महावीर कहलाए। एक बार इंद्र उनके दर्शन के लिए आया था तब दर्शन लेते ही उन्हे वीर ऐसा कहा। तो चारणमुनीने सन्मती ऐसा कहा। संगमदेवने महावीर ऐसा नाम रखा। ज्ञातृपुत्र ऐसा और एक नाम भी उनका है।
    आयु के 30 साल में उन्होने गृहत्याग किया। ऋजुकूला नदी के तट पर जृंभक गाव में बारा साल कठोर तप करके उन्हे केवल ज्ञान हुआ। बाद में 66 दिन मगध देश में राजगृह के पास विपुलाचल पर्वतपर मौन धारण कर उन्होने विहार किया। वही इंद्रभूती नाम के ब्राह्मण की शंकाओंको दूर कर उसे पहला गणधर बनाया। इसके अलावा उनके अनेक मुख्य गणधर ब्राह्मणही थे । उनका ब्राह्मणधर्मकी जातीप्रथा एवं अनावश्यक क्रियाकांड छोडकर विरोध नही था ।
    भगवान बुद्ध के समकालीन भगवान महावीर ने मद्य, मांस, मदिरा, हिंसा, असत्यवचन, शहद, चोरी करना इन बातों को त्यागकर पत्नी के सिवाय परस्त्री को माता मानना और आवश्यक धन संग्रह बताया।
    व्यक्ती श्रेष्ठ होता है उसके कर्मसे जन्म से नही ऐसी स्पष्ट बात उन्होने कही। क्षत्रिय परिवार में जन्म लेकर भी ‘मै एक श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ’ ऐसा वे कहते थे। अध:पतित पुरोहित और उनके अनावश्यक जटिल क्रियाकांड इनको उन्होने विरोध किया । स्त्री, पुरुष और सभी वर्णों को मुक्ती का समान अधिकार है ऐसे वे कहते थे।
    य: शस्त्रवृत्ति: समरे रिपु: स्याद् य: कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपा: क्षिपन्ति न दीनकानीनशुभाशयेषु॥ अर्थात जो शस्त्रधारण कर के युद्धभूमी में युद्ध करने के लिए आया है या जो अपनी मातृभूमी को बाधा देने वाला हो ऐसे व्यक्तीपरही राजाओं को शस्त्र उठाना चाहिए। दीन, दु:खी और सद्विचारी पुरुषों पर नही। इसका अर्थ यह हुआ की उचित समय पर हिंसा का समर्थन उन्होने किया।
    अर्धमागधी भाषा के भगवतीसूत्र इस ग्रंथ में गुरुशिष्य संवाद से साधककों की अनेक शंकाओं का वे उत्तर देते है। साधनाद्वारा संकीर्णता छोडकर सर्वसंग्राहक स्तर को प्राप्त करने का अनुभव उनके अनेकांतवाद या स्यादवाद विचारो में दिखायी देता है। किसी भी चिजका चारो दिशाओं से विचार करनेका इशारा यहा मिलता है। अलग विचारोंके विरोधी पक्ष के बारे में समझदारी दिखानेका मानसिक धैर्य यहाँ अभिप्रेत आहे। स्याद्वाद से प्राप्त होनेवाला सम्यगज्ञान और अहिंसासे मिलनेवाला सम्यगदर्शन इन दोनोंका सार सम्यक चारित्र्य में प्रतिध्वनित होना चाहिए। हर किसीपर अपने अपने कर्म फलोंकी जवाबदेही होती है, इस कारण मोक्ष के लिए क्रियाक्षय करे और हर किसी को अपना उद्धार स्वयं को ही करना होगा, कोई परमेश्‍वर मोक्ष देनेवाला नही है ऐसा उन्होने कहा।
    मोक्ष का अधिकारी कौन ? अहिंसा, कर्म आदी उपदेशों को देखते हुए भगवान श्रीकृष्ण के गीता में दिए हुए क्रांतिकारी विचारोंकी याद आ जाती है । केवलज्ञान के बाद 42 वर्ष उन्होने श्रमणपंथ संघ निर्माण और प्रसार का कार्य किया और 72 साल की आयु में उनका अश्‍विन अमावस्या को निर्वाण हुआ।
    सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिबिंब दीसइ वियसिय सयवत्तगब्भगउरो वीरो ॥- जिसके केवलज्ञानरुपी उज्ज्वल दर्पण में लोक और अलोक प्रतिबींबीत समान विशद रुपसे दिखायी देते है और जो विकसित कमल पुष्प परागों के समान सुवर्णकांती से तेजोमय है, ऐसे भगवान महावीर का जयजयकार हो !
लेखन एवं संशोधन- दामोदर प्र. रामदासी

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