Thursday, May 4, 2017

नाडीशोधन प्राणायामका महत्त्व - आदी शंकराचार्यका दृष्टिकोण

नाडीशोधन प्राणायामका महत्त्व - आदी शंकराचार्यका दृष्टिकोण

श्‍वेताश्‍वेतरोपनिषद के अध्याय 2, मंत्र क्रमांक 8 में ऋषी कहते है-
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं
हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान
स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि॥8॥

(सिर, ग्रीवा और वक्षस्थल) तिनोंको उँचे रखते हुए शरीरको सीधा रख मनके द्वारा इन्द्रियोंको हृदयमें सन्निविष्ट कर विद्वान ओंकाररुप नौकाके द्वारा संपूर्ण भयानक जलप्रवाहोंको पार कर जाता है॥8॥
    आदी शंकराचार्य इस विधी पर भाष्य करते हुए बतलाते है की प्राणायाम के द्वारा जिसके मनकी अशुद्धी क्षीण हो जाती है उसीका चित्त ब्रह्ममें स्थिर होता है, इसलिए प्राणायामका वर्णन किया जाता है। पहले नाडीशोधन करना चाहिए। उसके पिछे प्राणायाममें अधिकार होता है। नाडीशोधन या अनुलोमविलोम प्राणायम का पुरा विधी बतलाते हुए परिणाम बतलाते है- त्रि: पञ्चकृत्वो वा एवम् अभ्यस्यत: सवनचतुष्टयमपरात्रे मध्याह्ने पूर्वरात्रेऽर्धरात्रे च पक्षान्मासाद्विशुद्धिर्भवति। - यह प्राणायाम शेषरात्री, मध्याह्न, पूर्वरात्रि और अर्धरात्र इन चार समय तीन तीन या पाँच पाँच बार अभ्यास करनेवालेकी एक पक्ष या एक मासमें नाडी शुद्धि हो जाती है।
    अतिभोजन या अभोजन का त्यागकर, पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर शास्त्रोक्त विधीसे नाडीशोधन करे। जो योगी नाडीशोधन किये बिना अभ्यास करता है उसका श्रम व्यर्थ होता है। गुरुकी बतलाई हुई विधी को एकांत में तीन चार वर्ष या तीन चार मासतक अभ्यास करे। प्रात:काल, मध्यान्ह तथा सायंकालमें स्नान कर सन्ध्यादि कर्मोंसे निवृत्त हो छ:-छ: प्राणायाम करे। शरीरका हलकापन, कान्ति, जठराग्निकी वृद्धि, नादका सुनायी देना ये सब नाडी शुद्धिकी सूचना देनेवाले चिह्न है।
    नाडियोंकी शुद्धि जप करनेसे नही होती- शुध्यन्ति न जपस्तेन, अत: वह नाडीशुद्धिका हेतु नहि है। इसके पश्‍चात रेचक, पूरक और कुंभक क्रमसे प्राणायाम करे। प्राण और अपानका संयोग होना ही प्राणायाम कहलाता है। हे गार्गी !- प्रणव त्रिरुप है। ये जो रेचक, पूरक, कुंभक है इन्हे प्रणव ही समझो। फिर आचार्य प्रणवका स्वरुप, प्राण का महत्त्व समझाते है। आचार्य अंतमे बतलाते है- साधक को चाहिए कि प्राणायामद्वारा शारीरिक दोषोंको भस्म करे, धारणासे पापोंका नाश करे, प्रत्याहारसे वैषयिक संसर्गोंका अंत करे और ध्यानसे अनीश्‍वर गुणोंकी निवृत्ति करे। जो पुरुष प्रतिदिन स्नान करके सौ प्राणायाम करता है वह यदि माता पिता या गुरुका हत्यारा हो तो भी तीन वर्षमें उस पापसे मुक्त हो जाता है। अगले मंत्र में कहा गया है कि साधक को चाहिए युक्त आहार-विहार करता हुआ प्राणोंका निरोधकर जब प्राणशक्ति (प्राणधारणाका सामर्थ्य) क्षीण हो जाय तब नासिकारंध्रद्वारा उसे बाहर निकाल दे। और फिर  वह विद्वान पुरुष दुष्ट अश्‍वसे युक्त रथके सारथिके समान सावधान होकर मनका नियंत्रण करे। आगे योग की सिद्धी बतला कर योगी कि स्थिती परमात्ममय बतलाते है।

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