भगवान बुद्ध की ध्यानविधी याने समत्व साधना
भगवान बुद्धने अपने जीवन समय में दिए हुए 82000 उपदेशो में से महासतिप्रस्थान सूत्र (महासतिपट्ठान सूत्त) एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सूत्र है। दीघानिकाय और मज्झिमनिकाय इस में यह आता है। निकाय याने मार्ग। मज्झिम याने मध्यम, समत्व का मार्ग। अपने शरीर, मन और चित्त में हर क्षण उठने वाली सुख-दुख की संवेदनाओं के प्रति समत्वभाव रखना । इस सूत्र मे थोडा अधिक स्पष्टीकरण दिया है इसलिए महा शब्द लगाया है। सति याने स्मृति-जागरुकता, प्रस्थान याने प्रतिष्ठापना। तो सतिपट्ठान याने जागरुकता की प्रतिष्ठापना करना। अपने आपकी जागरुकता को अंतीम सीमातक प्रतिष्ठापीत करना। इससे अपने शरीर, मन और चित्त का सत्य प्रकाशीत होता है। और प्रकृतीका रहस्य उजागर होता है। सतत भंग होने वाला शरीर मै नही हू इसका स्पष्ट अनुभव आता है, सतत बदलनेवाला एक विचार या विकारोंका समुह मै नही हू यह बात प्रज्ञा के स्तर उपासक अनुभव करता है। प्रज्ञावान यह उपासक यह जानकर बुद्ध याने जाननेवाला होता है। कुरु प्रदेश में कुरुओंके कर्मासधर्म (कम्मासधम्म) नामकी नगरीके अति शीलवान लोगोंको भगवान ने ध्यानविधी बतलाई। इस में चार स्मृती-प्रस्थान है जिसमें सत्त्वशुद्धि, दु:ख विनाश, दुर्भावनाओं की समाप्ति, सत्यप्राप्ति और निर्वाण साक्षात्कार का एकमात्र मार्ग बतलाया है। बुद्ध के पूर्व इस विधी का उल्लेख ऋग्वेद में बतलाया गया है।- यो वियोवाभिह विपायाति भुवन: साङ्का पायोति सा ना परोदति द्विओ:॥- जो अपने आपको केवल समत्वभावसे देखने में कुशल हो जाता है, उसकी सारी घृणा, क्रोध समाप्त होकर उसका मन शुद्ध हो जाता है। ऋग्वेद के साथ उपनिषदों का सार गीता में भी समत्व योग बतलाया है- योगस्थ: कुरु कमार्र्णि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्धसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥- हे धनंजय ! तू आसक्ती छोडकर सिद्धी और असिद्धी में समान भाव रख के योग में स्थिर होकर कर्तव्य कर्म कर. समत्वही योग है। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युजस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥- समबुद्धिवाला पुरुष पुण्य या पाप दोनोंका त्याग करता है या मुक्त रहता है। इस कारण तू समत्वरुप योग में रह। यह समत्वरुप योगही कर्मों में दक्षता है। याने यहि कर्मबंधनसे छुटकारा पाने का मार्ग है। हर कर्म में समत्व याने मध्यममार्ग से जीना, या अपने आपको देखना, अति कही भी नही । यही कर्म कुशलता है। बुद्ध के समय बुद्ध, जैन वा हिंदू शब्दोंके बजाय कुशल धर्म व अकुशल धर्म इन शब्दोंका उपयोग होता था। अर्थात कुशल या अकुशल शब्द कर्मों के संदर्भ में उपयोग करते थे। कुशलता ही धर्म और अकुशलताही अधर्म। जागरुकताही पुण्य और बेहोशीपूर्वक कर्मही पाप होता था। हर क्षण, हर कर्म में यह सम्यक स्थिती बनाए रखने के लिए विस्तार से बुद्ध विधी बताते है। इसी ध्यान विधी का उन्होने उपयोग करके बुद्धता प्राप्त की और दुसरों को बतलाया। हर क्षण सजग रह कर काया मे काया को देखना, वेदनाओं को देखना, चित्त को देखना और मन (धर्मो में धर्मों को देखना) यह विधी बतलाते है। काया स्तर पर (कायानुपश्यना) उपासक किसी एकांत में पालथी मारकर शरीर को सीधा रख कर मुख के उपरी स्तरपर ध्यान लगाकर बैठता है। स्वाभाविक रुपसे आनेजानेवाली श्वास को जानने लगता है। बाद में सारे शरीर का अनुभव लेता हुआ, शरीरस्तर पर होनेवाले उपद्रव शांत होने के पश्चात आनेवाला, जानेवाला श्वास जानने को सिखता है। शरीर के भीतर और बाहर सजग रहता हुआ देखता रहता है। और उठनेवाली और बाद में समाप्त होनेवाली हर एक संवेदनांओ को जानने लगता है। और यह केवल शरीर है- इसपर उसकी जागरुकता स्थिर हो जाती है। ऐसे स्थिती में जितना समय केवल ज्ञान या दर्शन होता रहता है उतना समय फिर वह अनासक्त होकर रहता है। तब इस संसार में ग्रहण करने लायक उसके लिए कुछ नहि रहता। बाद में इस सजगता की आदत होने के पश्चात वह उठते बैठते, खाते पिते, काम करते शरीरकी अन्य अवस्थाओं में भी उस क्षण की शरीर, मन, चित्त की अवस्था के प्रति जानता हुआ सजग रहता है। इस के आगे भी प्रत्येक शारिरीक क्रिया में संप्रज्ञानी रहता हुआ जागरुक रहता है। वेदनाओं के स्तर पर चाहे वह वेदना किसी भी प्रकार की क्यों न हो सुखद या दुखद वह उनको केवल जानता रहता है (वेदनानुपश्यना) । चित्तानुपश्यना में चित्त की आसक्तियुक्त या अनासक्तियुक्त, द्वेषयुक्त या द्वेषविहीन, मोहयुक्त या मोहविहीन ऐसी किसी भी प्रकारकी चित्तस्थिती को प्रज्ञापूर्वक जैसी है वैसी देखनेवाला, केवल जाननेवाला बनता है। ऐसे में इन अवस्थाओं का सर्वत्र उदय व्यय होता रहता है, इनके प्रति जागरुकता स्थिर होकर - यह तो चित्त है ! ऐसा दर्शन होता रहता है। धर्मानुपश्यना में मन में उठे हर एक विचार या विकार (धर्म) स्थिती जैसी हो उसे प्रज्ञापूर्वक जानता हुआ पहले जैसे ही सर्वत्र भीतर-बाहर उदय-व्यय का अनुभव लेता हुआ रहता है । फिर जागरुकता स्थिर होकर यह केवल मन (धर्म) है ऐसा जानता है। मन, चित्त स्तर पर उठनेवाली हर एक संवेदना, विकार शरीर के माध्यम से प्रकट होते है। इस कारण कभी शरीरको भीतर या बाहर सुखद लगता है तो कभी दु:खद । पर यह संवेदना उदय होती है फिर कुछ समय पश्चात अस्त भी हो जाती है। हर क्षण भंग हो कर किसी नयी स्थिती में जाने वाली इस शारिरीक स्थिती को प्रतिक्रिया न देते हुए, जागरुक रहकर केवल देखना है, जानना है। नीवरणोंकी धर्मानुपश्यना करते समय, मन को देखते समय- कामुकता, द्रोह, आलस्य, खेद, संदेह आदी को प्रज्ञापूर्वक केवल जानना है। उपादान (आसक्ति) स्कंध की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक रुप, वेदना, संवेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान देखना है। आयतनों की धर्मानुपश्यना करते समय जानना है की यह भीतर के है या बाहर के। या दोनों के एकत्रित होने से हो रहा है । विद्यमान नही है ऐसे संयोजनों की उत्पत्ती है, यह उत्पन्न हो गई संयोजनों की समाप्ति है और समाप्ति होते होते उसका पुनरोद्भव हो नही रहा, यह देखना है। बाह्य आयतनो में- आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा और भीतर में मन और उसके विषय। बोधी अंगों की धर्मानुपश्यना करते समय यह प्रज्ञापूर्वक जानना है की इस समय बोध्यंग है या नही। या उत्पन्न हो रहा है की परिपूर्ण हो रहा है। बोध्यंगे है- स्मृती, धर्मविचय, वीर्य, प्रीति, प्रश्रब्धी, समाधी और उपेक्षा। आर्य (श्रेष्ठ) सत्योंकी धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक जैसा है वैसा जानना है की यह दु:ख है, यह दु:खोंका समुदाय है, यह दु:खोंका निवारण है, यह दु:ख दूर होने का मार्ग है। इसके बाद भगवान पाच उपादान स्कंधही दु:ख है। बारंबार आसक्ति उत्पन्न करनेवाली तृष्णा दु:खों का समुदाय, दु:ख का कारण है। इस आसक्ति का संपूर्ण निरोध दु:ख का अंत है और आर्य अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक उपजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधी) दु:खका निरोध करने का उपाय है। इसका अर्थ हर स्थिती में समत्त्व भाव। अंत में भगवान कहते है - जो मेरे बतलाए मार्गसे इस चार स्मृती प्रस्थानों का सात वर्ष अनुकरण करनेसे यह दो फलो मे से एक की आशा कर सकते है- इसी जन्म में अर्हत्व की प्राप्ती या शरीर की उपाधी समाप्त होते ही अनागामी अवस्था। भगवानने आगे बतलाया है की इससे कम समय में भी परिणामों की अपेक्षा कर सकते है। भगवान बुद्ध इस समत्त्व साधना मार्ग को ही यह सनातन धर्म है - एस धम्मो सनंतनो ऐसा कहते है।
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