Friday, December 7, 2018

गुरु अगर शिष्य को बैसाखी देता हो तो वह शिष्य का शत्रू है।

कुछ बाते खयाल मे लेना आवश्यक है तो पहली बात शिष्य बीज है, बीज की यात्रा देखी होगी । पहले तो उसे जमिन में अपने आप को मिट्टी में दफन करना पडेगा, मिट्टी गिली होगी तब प्रभाव डालेगी, जमिन के भीतरका वातावरण, गरमी, बारीश, ठंड से स्वयम संघर्ष करना पडेगा। तब योग्य समय बीज टुटेगा, भीतरसे अतिकोमल अंकुर फलीत होगा। धीरे धीरे प्रकाश की दिशामे वह यात्रा करेगा। जमिन के बाहर प्रकाश की ओर जो अनंत की यात्रा है उसमें बगीचे का माली उसे एक मोड पर दिशा और दशा देगा तबतक उस बीज को अकेले ही जमिन में संघर्ष करना होगा। ऐसा नही है की माली को पता नही, वह बाहर से उस बीज की भी वह रक्षा करता है पर हस्तक्षेप नही करता। हस्तक्षेप करेगा तो वह उस बीज का शत्रू बन जाएगा। उस बीज को स्वयम संघर्ष से गुजरना होगा।
सद्गुरुका साधक जीवन में प्रवेश कब होता है। समत्वं योग उच्यते....हर क्षण कर्म में साधक समत्वका अभ्यास करता है तब जमिन के भीतर संघर्ष करने वाले बीज के समान उसकी स्थिती है। बार बार मन वापस प्रकृती की ओर दौडता है ना जाने कितने जन्मों का अभ्यास रहा होगा। अनावश्यक विचार, भावनाए दौडाती रहती है। बार बार उसे वापस लौटकर समत्व का अभ्यास करना पडता है। समत्व का अर्थ है, शरीर की संवेदनाए, मन की वृत्तिया उसे प्रतिक्रिया न देते हुए साक्षी भाव से देखना। इस देखने में ही संभावना है। नेती नेती, मै शरीर नही, मन नही तो में प्रतिक्रिया क्यूं दू। तो इस समत्व से योग सधता है। स्वयं से वह जुड जाता है। ध्यान की स्थिती याने हर क्षण वर्तमान में जीने का अभ्यास गहन होता है। और फिर एक क्षण आता है, बीज टूट जाता है। समत्व को सधे उस साधक को कर्मसाम्यदशा प्राप्त हो जाती है।
    चौथे चक्रपर याने हृदय, अनाहत चक्र तक उसकी यात्रा अब पुरी हो चुकी है। अनंत की दिशा में बढने में वह सक्षम है जैसे वह पौधा सूर्य की ओर बढने में अब सक्षम है।
    यह स्थिती बनते ही सद्गुरु प्रवेश कर अनुग्रह देते है। अनुग्रह- अनु+ग्रह= कृपा करना, स्वीकार करना, आश्रय व आधार देना। यह एक प्रकारचा शक्तिपात है। अनुग्रहित शिष्य कही भी होगा तब भी सद्गुरु की कृपाशक्तीका सूक्ष्म प्रवाह उस तक पहुचता है।
शिष्यकी कर्मसाम्यस्थिती
समर्थ रामदासस्वामी कहते है-
मी करुन अकर्ता। मी परेहून पर्ता। मजमध्ये वार्ता। मी पणाची नाही॥आत्मा.5-5॥
जे स्वामींच्या हृदयी होते। ते शिष्यासी बाणले अवचिते। जैसे सामर्थ्य परीसाते। लोहो आंगी बाणे॥आत्मा.5-8॥
- मै कर के भी अकर्ता हू, मै सबसे परे हू, मुझ में कर्ताभाव समाप्त हुआ है ऐसे शिष्य की अवस्था होते ही उसी क्षण सद्गुरु अपने हृदय की बात याने स्वरुपानुभूति शिष्य में परावर्तित करा देते है। जैसे परिसस्पर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है।
इस स्थिती का वर्णन गीता में है-
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: । नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥49॥गीता-18॥जिसकी बुद्धी कही भी आसक्त नही होती। जिसने अपने अंत:करण को स्वाधीन किया हुआ है। जो देहभोगादि में तृष्णारहित है। ऐसा मनुष्य संन्यास्त है। इस योग से श्रेष्ठ ऐसी निष्कर्मतारुप सिद्धी को वह प्राप्त करता है।
भगवान ज्ञानेश्‍वर भी इसपर प्रकाश डालते हुए कहते है-
तरी देहादिक हें संसारें । सर्वही मांडलेंसे जे गुंफिरें । तेथ नातुडे तो वागुरे । वारा जैसा ॥56॥
- जिस तरह वायू जाले में नही फसता, उसी प्रकार से देहादिक संसाररुपी जटीलता में साधक फसता नही
पैं परिपाकाचिये वेळे । फळ देठें ना देंठु फळें । न धरे तैसें स्नेह खुळें । सर्वत्र होय ॥57॥
- फल परिपक्व होते ही वृक्ष का त्याग करता है। फिरसे वृक्ष से नाता नही रहता, उसी प्रकार से सारी बातो में मोह समाप्त हो जाता है।
ऐशी कर्म साम्य दशा । होय तेथ वीरेशा । मग श्रीगुरु आपैसा । भेटेचि गा ॥66॥
ऐसे ही कर्म के योग से हे वीर अर्जुन जब साम्यावस्था प्राप्त होती है तब अपने आप ही श्रीगुरुकी भेट होती है।
    इस से पहले अगर कोई गुरु के नामपर साधक को संमोहित कर अपने चंगुल में फसा कर उसका संघर्ष समाप्त कर डालता है ऐसा कथित गुरु चोर के समान ही है।
    आखिर उद्धरेदात्मानात्मानं ......मै ही मेरा उद्धार कर्ता हू......यह सूत्र शिष्य के लिए मूल सूत्र है।
सद्गुरुका साधक जीवन में प्रवेश कब होता है। समत्वं योग उच्यते....हर क्षण कर्म में साधक समत्वका अभ्यास करता है तब जमिन के भीतर संघर्ष करने वाले बीज के समान उसकी स्थिती है। बार बार मन वापस प्रकृती की ओर दौडता है ना जाने कितने जन्मों का अभ्यास रहा होगा। अनावश्यक विचार, भावनाए दौडाती रहती है। बार बार उसे वापस लौटकर समत्व का अभ्यास करना पडता है। समत्व का अर्थ है, शरीर की संवेदनाए, मन की वृत्तिया उसे प्रतिक्रिया न देते हुए साक्षी भाव से देखना। इस देखने में ही संभावना है। नेती नेती, मै शरीर नही, मन नही तो में प्रतिक्रिया क्यूं दू। तो इस समत्व से योग सधता है। स्वयं से वह जुड जाता है। ध्यान की स्थिती याने हर क्षण वर्तमान में जीने का अभ्यास गहन होता है। और फिर एक क्षण आता है, बीज टूट जाता है। समत्व को सधे उस साधक को कर्मसाम्यदशा प्राप्त हो जाती है।
    चौथे चक्रपर याने हृदय, अनाहत चक्र तक उसकी यात्रा अब पुरी हो चुकी है। अनंत की दिशा में बढने में वह सक्षम है जैसे वह पौधा सूर्य की ओर बढने में अब सक्षम है।
    यह स्थिती बनते ही सद्गुरु प्रवेश कर अनुग्रह देते है। अनुग्रह- अनु+ग्रह= कृपा करना, स्वीकार करना, आश्रय व आधार देना। यह एक प्रकारचा शक्तिपात है। अनुग्रहित शिष्य कही भी होगा तब भी सद्गुरु की कृपाशक्तीका सूक्ष्म प्रवाह उस तक पहुचता है।
शिष्यकी कर्मसाम्यस्थिती
समर्थ रामदासस्वामी कहते है-
मी करुन अकर्ता। मी परेहून पर्ता। मजमध्ये वार्ता। मी पणाची नाही॥आत्मा.5-5॥
जे स्वामींच्या हृदयी होते। ते शिष्यासी बाणले अवचिते। जैसे सामर्थ्य परीसाते। लोहो आंगी बाणे॥आत्मा.5-8॥
- मै कर के भी अकर्ता हू, मै सबसे परे हू, मुझ में कर्ताभाव समाप्त हुआ है ऐसे शिष्य की अवस्था होते ही उसी क्षण सद्गुरु अपने हृदय की बात याने स्वरुपानुभूति शिष्य में परावर्तित करा देते है। जैसे परिसस्पर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है।
इस स्थिती का वर्णन गीता में है-
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: । नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥49॥गीता-18॥जिसकी बुद्धी कही भी आसक्त नही होती। जिसने अपने अंत:करण को स्वाधीन किया हुआ है। जो देहभोगादि में तृष्णारहित है। ऐसा मनुष्य संन्यास्त है। इस योग से श्रेष्ठ ऐसी निष्कर्मतारुप सिद्धी को वह प्राप्त करता है।
भगवान ज्ञानेश्‍वर भी इसपर प्रकाश डालते हुए कहते है-
तरी देहादिक हें संसारें । सर्वही मांडलेंसे जे गुंफिरें । तेथ नातुडे तो वागुरे । वारा जैसा ॥56॥
- जिस तरह वायू जाले में नही फसता, उसी प्रकार से देहादिक संसाररुपी जटीलता में साधक फसता नही
पैं परिपाकाचिये वेळे । फळ देठें ना देंठु फळें । न धरे तैसें स्नेह खुळें । सर्वत्र होय ॥57॥
- फल परिपक्व होते ही वृक्ष का त्याग करता है। फिरसे वृक्ष से नाता नही रहता, उसी प्रकार से सारी बातो में मोह समाप्त हो जाता है।
ऐशी कर्म साम्य दशा । होय तेथ वीरेशा । मग श्रीगुरु आपैसा । भेटेचि गा ॥66॥
ऐसे ही कर्म के योग से हे वीर अर्जुन जब साम्यावस्था प्राप्त होती है तब अपने आप ही श्रीगुरुकी भेट होती है।
    इस से पहले अगर कोई गुरु के नामपर साधक को संमोहित कर अपने चंगुल में फसा कर उसका संघर्ष समाप्त कर डालता है ऐसा कथित गुरु चोर के समान ही है।
    आखिर उद्धरेदात्मानात्मानं ......मै ही मेरा उद्धार कर्ता हू......यह सूत्र शिष्य के लिए मूल सूत्र है।

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