🌸🌸भगवद्गीताकी टीका ज्ञानेश्वरी को लिखे हुए 725 साल पुरे हुए है । इस अवसर पर
🌸ओवी क्र. 23 अध्याय 12 का चिंतन
अर्जुन उवाच । एवं सतत युक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥1॥
इसपर टीका करते हुए भगवान ज्ञानेश्वर कहते है - तरी व्यक्त आणि अव्यक्त। हे तूंचि एक निभ्रांत।भक्ती पाविजे व्यक्त। अव्यक्त योगें ॥23॥ भावार्थ :- व्यक्त और अव्यक्त तू हि हो, ऐसा विश्वरुपविराटके माध्यमसे और आदिअंतके सगुण-निर्गुण दर्शनसे तूनेहि नि:संशय सिद्ध किया है। तेरे व्यक्त और अव्यक्त स्वरुपमें आकारभेदसे द्वैतका आभास हुआ पर अनुभव में तो यह दोनो स्थिती में तू एकही है, इस पर मै नि:शंक हू। यह सगुण साकार स्वरुप और वह निर्गुण निराकार विराट् विश्वरुप, अरे यह तेरे ही रुप है। तू अव्यक्त होता है और व्यक्त होता है; यह लीला जब तक तू प्रकट कर रहा है, तब तक व्यक्त और अव्यक्त यह दोनो रुप तेरे स्वरुपबोध में, अनुभव में एकत्वही प्रस्थापित करते है। और उस में अभिन्नताही दिखाते है। इसके कारण आदिअंत में सगुण में असत कैसा संभव है ? सत्यासत्य भेद हुआ; फिर भी सगुण के उच्चस्थ प्रेमदिव्य में स्वरुपबोध में सब त्रिपुटी समाप्त होने पर वहा एकात्मक अनुभवसुखबिना और क्या हो सकता है ? फिर बोलो की इस महासुख में जो स्वयम को लेकर भगवान डूब जाता है वह रुपभिन्नता कैसा दिखा सकता है ? विवरण :- प्रभूप्रेमरससे आंतर्बाह्य भरा हुआ सगुण, निर्गुण भेद नही जानता । भगवान ज्ञानेश्वर निर्गुण और सगुण इस सापेक्ष ईश्वरके पार अनाद्यनंतत्व परमात्मा प्रकट कर रहे है। यद्यपी भक्ती द्वैत में उपासनात्मक व आत्मनिवेदनात्मक- वैधी वा रागानुप्रेमा-गौणी वा परा शास्त्रसे कथित है। फिर भी उसका पर्यवसन उस महद्ब्रह्म भुवनाधिपति श्रीकृष्णस्वरुप में अवस्थित है । भक्त के भाव में भी परात्पर सगुण पुरुषोत्तम का उभयांग अद्वय उत्सव हो रहा है। इस अनाद्यनंतको छोडकर अर्जुन उस विराट को क्यो स्विकार करेगा ? भक्त का वह महाभाव ही श्रीकृष्णशरीर है।
इस संदर्भ में सद्गुरु संत रामदास्वामीजीके खडे वचन ज्ञान के आकाश में लहर उठा रहे है -
द्वैत पाहता ब्रह्म नसे। ब्रह्म पाहाता द्वैत नसे। द्वैताद्वैत भासे। कल्पनेसी॥दासबोध 7.5.17॥
(लेखन- दामोदर प्र. रामदासी) 🚩🙏
🌸ओवी क्र. 23 अध्याय 12 का चिंतन
अर्जुन उवाच । एवं सतत युक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥1॥
इसपर टीका करते हुए भगवान ज्ञानेश्वर कहते है - तरी व्यक्त आणि अव्यक्त। हे तूंचि एक निभ्रांत।भक्ती पाविजे व्यक्त। अव्यक्त योगें ॥23॥ भावार्थ :- व्यक्त और अव्यक्त तू हि हो, ऐसा विश्वरुपविराटके माध्यमसे और आदिअंतके सगुण-निर्गुण दर्शनसे तूनेहि नि:संशय सिद्ध किया है। तेरे व्यक्त और अव्यक्त स्वरुपमें आकारभेदसे द्वैतका आभास हुआ पर अनुभव में तो यह दोनो स्थिती में तू एकही है, इस पर मै नि:शंक हू। यह सगुण साकार स्वरुप और वह निर्गुण निराकार विराट् विश्वरुप, अरे यह तेरे ही रुप है। तू अव्यक्त होता है और व्यक्त होता है; यह लीला जब तक तू प्रकट कर रहा है, तब तक व्यक्त और अव्यक्त यह दोनो रुप तेरे स्वरुपबोध में, अनुभव में एकत्वही प्रस्थापित करते है। और उस में अभिन्नताही दिखाते है। इसके कारण आदिअंत में सगुण में असत कैसा संभव है ? सत्यासत्य भेद हुआ; फिर भी सगुण के उच्चस्थ प्रेमदिव्य में स्वरुपबोध में सब त्रिपुटी समाप्त होने पर वहा एकात्मक अनुभवसुखबिना और क्या हो सकता है ? फिर बोलो की इस महासुख में जो स्वयम को लेकर भगवान डूब जाता है वह रुपभिन्नता कैसा दिखा सकता है ? विवरण :- प्रभूप्रेमरससे आंतर्बाह्य भरा हुआ सगुण, निर्गुण भेद नही जानता । भगवान ज्ञानेश्वर निर्गुण और सगुण इस सापेक्ष ईश्वरके पार अनाद्यनंतत्व परमात्मा प्रकट कर रहे है। यद्यपी भक्ती द्वैत में उपासनात्मक व आत्मनिवेदनात्मक- वैधी वा रागानुप्रेमा-गौणी वा परा शास्त्रसे कथित है। फिर भी उसका पर्यवसन उस महद्ब्रह्म भुवनाधिपति श्रीकृष्णस्वरुप में अवस्थित है । भक्त के भाव में भी परात्पर सगुण पुरुषोत्तम का उभयांग अद्वय उत्सव हो रहा है। इस अनाद्यनंतको छोडकर अर्जुन उस विराट को क्यो स्विकार करेगा ? भक्त का वह महाभाव ही श्रीकृष्णशरीर है।
इस संदर्भ में सद्गुरु संत रामदास्वामीजीके खडे वचन ज्ञान के आकाश में लहर उठा रहे है -
द्वैत पाहता ब्रह्म नसे। ब्रह्म पाहाता द्वैत नसे। द्वैताद्वैत भासे। कल्पनेसी॥दासबोध 7.5.17॥
(लेखन- दामोदर प्र. रामदासी) 🚩🙏
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