मय्यर्पित मनोबुद्धि :
समर्पणकी कसोटी और कर्मसंन्यास (हिंदी)
आत्मदानकी दिव्यता याने समर्पण भाव। समर्पण याने भगवंत के प्रति सर्वोच्च अविचल स्थिती। समृद्ध प्रगतियान।
यतोऽअभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धी स धर्म:॥ अभ्युदय अर्थात प्रापंचिक एवं नि:श्रेयस अर्थात पारमार्थिक सर्वोच्च लब्धता याने धर्म पर इस पुरुषार्थ के लिए चाहिए संपूर्ण समर्पण कि चित्तस्थिती। समर्पण कि भावना जीवन को लक्ष्य बनाती है और लक्ष्य एवं लक्षवेधी दोनों को ही दिव्यता प्रदान कराती है। यही है भगवंत के प्रति भागवत आत्मनिवेदन या अव्यभिचारी प्रेम ! वेद जिसे यज्ञ कहते है, उसे अध्यात्म में भक्ति कहते है। समर्पण शब्द यह सर्व भावयुक्त है। अर्थात यज्ञ प्रवृत्ती में अभिलाषा होती है, यह विचार अलाहिदा ! जो भक्ति में या समर्पण में नहि होता।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥गीता 8.7॥- अर्थात मुझे मन एवं बुद्धी अर्पण करो, ऐसा तु मुझेही प्राप्त हो जाएगा, इस में संशय नहि।
संशय मत रख इन शब्दो में भगवान प्रतिज्ञतापूर्वक यह बात कह रहे है यह सुनिश्चित हो जाता है।
प्रतिज्ञतापूर्वक यह शब्द सृष्टीका सनातन नियम है, यह शब्द अंतिम सिद्धांतरुप है। इस कारण इस समर्पण होनेवाले की भावदशा को अपनेआप महत्त्व प्राप्त हो जाता है।
यत्करोषि यदश्नाचि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ गीता 9.27॥ अर्थात होनेवाली प्रत्येक क्रिया में ईश्वरार्थ धारणा रखना यह समर्पण का प्रथम पाठ है। कारण जिसके प्रति समर्पित होना है, वह पदार्थ भी व्यापक एवं पूर्ण चाहिए। आधेअधुरे पदार्थों के प्रति समर्पित होना याने वैसे ही गुण समर्पित होनेवाले चित्त में प्रकट हो जाएंगे यह बात गौर करने लायक है।
इस कारण समर्पित होते समय चित्त किस दशा मे चाहिए ? 1) भगवान ने मुझे उसे जैसा चाहिए वैसाही बनाया हुआ है, और उतनाही मुझे दिया है। 2) जो दिया है वह उसके लिए और मेरी सामर्थ्य देखकर मुझे दिया है। वह दिया हुआ कितना चाहिए यह तय करने का अधिकार मुझे नहि है और वैसी वासना भी मुझे नहि रखनी चाहिए । और दिया हुआ मुझे उसके लिएही उपयोग करना है। 3) जैसे फुलो में सुगंध, वायु में बहने का गुण उसने दिया है, तब फुलने वायु होने की अपेक्षा रखना या वायु ने फुल होने का हट करना गलत है और भगवान के इच्छाप्रति अप्रसन्न होने जैसा है। ऐसी चित्त कि स्थिती में समर्पण का पतन हुआ है ऐसा समझना उचित होगा। उसने दि हुई सामर्थ्य से उसके प्रति समर्पित होना ही प्रसन्नता का रहस्य है।
4) अपने प्रति अज्ञान का या कमदर्जे का भाव या अपराधवृत्तीकी ग्रंथी यह पारमार्थिक गुनाह है। कर्मवृत्तिका त्याग या निवृत्ती यह ढोंग हो जाता है कारण वैसी कृती अर्थात भगवान ने जो मेरे लिए कार्य बनाया है उसके प्रति नाखुष होने जैसा है। और उन कर्मों के माध्यम से भगवान को मेरा समर्पण का भाव चाहिए था उस भाव को जैसे मै ही उखाड के फेंक रहा हूँ । इस कारण जो कर्म मुझसे हो रहे है वह मेरे माध्यम से वह कर रहा है और उसे ही समर्पित हो रहे है ऐसी भावदशा ईशपूजा है। 5) इस कारण उन सारे कर्मों के प्रति अखंड प्रसन्नभाव और उत्साह अगर चित्त में चोबीसो घंटे है तो भगवान मुझ पर खुष है ऐसा समझना चाहिए। बाह्य कर्मों के साथ मन (संकल्प एवं भोग), चित्त (आस्था), बुद्धी (स्मृति एवं गति) और अहंकार (अभिमान एवं अस्मिता) यह सारी अंतरीय शक्तियाँ ईश्वरार्थ उपयोग में लाना यह बात स्वाभाविक हो जाती है।
चित्त मे समाधान के साथ, अनंत ने मुझे जैसा रखा है मैं वैसा ही रहुँगा - संत तुकाराम कि इस वाणी में रखने कि संकल्पना कि गहनता चिंतनीय हो जाती है।
संसार कि इस क्रिडा में सोंपा गया काम औरों की सहायता से यथासंभव करना पडता है, ऐसे में किसी खिलाडी ने अगर उस कार्य को टाल दिया तो उस क्रिडा का आनंद समाप्त हो जाता है। ऐसे खिलाडी को आनंद भी चाहिए पर कार्य के बीना। ऐसे खिलाडी खेल को बिगाड देते है या उस खेल से अलग हो जाते है। ऐसे जीवों को तथाकथित कर्मसंन्यासी कहते है। इनको आनंद कि तो वासना है पर खेल नहि चाहिए। एक प्रकारसे भगवाननिर्मित क्रिडा में यह तो अपराधी सिद्ध हो जाता है। क्योंकी उसने उस खेल को ही झुटा समझा है।
संत ज्ञानेश्वर (भक्तों कि मां) गीतापर टीका करते समय, जब तक देह है तबतक कर्मत्याग अशक्य आहे यह बात पुरे जोरसे कहते है- और इन पांच कारणों से कर्म घटीत होता है ऐसे कहते है- देह, कर्ताजीव, विभिन्नइंद्रिये, कर्तृत्वशक्ति और दैव-देवोंका समुदाय। कर्मसंन्यास वही है जिस में अहंकार रहित ईश्वरार्पण या सद्गुरुर्पणका भाव है।
अहं-बुद्धि-चित्त के प्रति नकारात्मक भाव छोडकर उन्हे ईश्वर के प्रती जुडाकर रखना और जो जो मेरे कार्य है उन्हे उस ईश्वरप्रति समर्पण करना यह भाव ही कर्मसंन्यास है।
स्वामी विवेकानंद कहते है यह संसार याने शाला का बडा मैदान है। और हम उस शाला में जानेवाले बच्चों को उसपर खेलने के लिए छोडा गया है। ऐसी बुद्धी आनेपर फिर इस जगत में हसने के या खिलाडुवृत्ती के अलावा क्या हात में रह जाता है। ऐसे में हमारे माध्यम से खेलने वाला भी वह और खेल भी वह । इस कारण पकडने लायक क्या रह जाता है ? इस खेल को हि संत ज्ञानेश्वर चिद्विलास कहते है।
भोगविषयों के प्रति आसक्ति कि भावनांओं को अपेक्षा प्रेम कि भावना महत्त्वपूर्ण है । भोग भी वही है। अहं भावनांओं के प्रति अपराधभाव पकडने कि अपेक्षा उसे व्यापक स्वरुप देना उचित है। लोभ भी उसका, दंभ भी वही, मोह में मोहन ही वही। ऐसी स्थिती में षड्विकारों के प्रति यह विकार है ऐसी भावना जाकर षडभावयुक्त ऐसा मै वहि हूँ ऐसा व्यापक भाव उतर आता है। इस धारणा के कारण आत्मगंडयुक्त चित्त कि विपन्नावस्था समाप्त होती है। ईश्वरीय प्रेम कि अद्वितीय भावना ही ऋजुता है ! वह प्रकट हो जाती है। उस व्यापक अहंता में उस भगवंत के अवतरण हो जाते है।
भक्तिगंगा किनारे आया हुआ शरणागत उपासक सद्गुरु के सामने उस गंगा के प्रवाह के साथ अपने आपको बहा देता है। इस समर्पण को बुद्ध स्रोतापन्न होना कहते है। अर्थात यह समुद्र की आकांक्षा के लिए नहि है वरन् वह बहना हि लक्ष है। पहुँचने के लिए यह बहना नहि होता ।
शरणागत भाव के मंदिर का शिखर याने समर्पण भाव ! अर्थात उसमे समत्व भावना के साथ अर्पण होना उस भाव के अंतर्निहित है। अब सुखदु:ख कि भावनाओं का आवाहन उपासक भगवंत के प्रति समर्पित करता रहता है। कारण योगभ्रष्टताकी आत्मपीडा उसे मिटानी होती है। उसकी यह भोगभावनाओं के प्रति उपेक्षा में शुष्कता नहि होती वरन् समर्पित भाव होने के कारण वह उत्साहमय होता है। इस किनारे पर भोगमय अभ्युदय का सुख उत्सव मनाने के बाद आया हुआ वह वीतराग होता है। उसे उस किनारे का अकारण आनंदउत्सव का वैकुंठ बुला रहा है। उसे उस भोगविषय के प्रति आसक्ती भी नहि होती और क्रोधही भी नहि आता, इसेहि कृष्ण अनासक्त योग कहते है।
अब उपासकका अंधेरे के साथ झगडा समाप्त हो चुका है, कारण अब वह प्रकाश पथ का पांथस्थ बन चुका है। अर्थात वह अंधेरा है ऐसी व्याख्या भी उसके चित्त में प्रकट नहि होती ! कारण ईश्वरप्रेम मे हि क्षणक्षण वह उगता रहता है। ऐसा यह भीतर का रसार्जन दिव्य है।
गुमशुदि से अब तो पाला पड गया है इश्क का।
रहनुमा गुमराह दोनों की खतम है राह अब॥रहिमन॥
श्रीकृष्णार्पणमस्तु !
लेखक - दामोदर प्र. रामदासी
समर्पणकी कसोटी और कर्मसंन्यास (हिंदी)
आत्मदानकी दिव्यता याने समर्पण भाव। समर्पण याने भगवंत के प्रति सर्वोच्च अविचल स्थिती। समृद्ध प्रगतियान।
यतोऽअभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धी स धर्म:॥ अभ्युदय अर्थात प्रापंचिक एवं नि:श्रेयस अर्थात पारमार्थिक सर्वोच्च लब्धता याने धर्म पर इस पुरुषार्थ के लिए चाहिए संपूर्ण समर्पण कि चित्तस्थिती। समर्पण कि भावना जीवन को लक्ष्य बनाती है और लक्ष्य एवं लक्षवेधी दोनों को ही दिव्यता प्रदान कराती है। यही है भगवंत के प्रति भागवत आत्मनिवेदन या अव्यभिचारी प्रेम ! वेद जिसे यज्ञ कहते है, उसे अध्यात्म में भक्ति कहते है। समर्पण शब्द यह सर्व भावयुक्त है। अर्थात यज्ञ प्रवृत्ती में अभिलाषा होती है, यह विचार अलाहिदा ! जो भक्ति में या समर्पण में नहि होता।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥गीता 8.7॥- अर्थात मुझे मन एवं बुद्धी अर्पण करो, ऐसा तु मुझेही प्राप्त हो जाएगा, इस में संशय नहि।
संशय मत रख इन शब्दो में भगवान प्रतिज्ञतापूर्वक यह बात कह रहे है यह सुनिश्चित हो जाता है।
प्रतिज्ञतापूर्वक यह शब्द सृष्टीका सनातन नियम है, यह शब्द अंतिम सिद्धांतरुप है। इस कारण इस समर्पण होनेवाले की भावदशा को अपनेआप महत्त्व प्राप्त हो जाता है।
यत्करोषि यदश्नाचि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ गीता 9.27॥ अर्थात होनेवाली प्रत्येक क्रिया में ईश्वरार्थ धारणा रखना यह समर्पण का प्रथम पाठ है। कारण जिसके प्रति समर्पित होना है, वह पदार्थ भी व्यापक एवं पूर्ण चाहिए। आधेअधुरे पदार्थों के प्रति समर्पित होना याने वैसे ही गुण समर्पित होनेवाले चित्त में प्रकट हो जाएंगे यह बात गौर करने लायक है।
इस कारण समर्पित होते समय चित्त किस दशा मे चाहिए ? 1) भगवान ने मुझे उसे जैसा चाहिए वैसाही बनाया हुआ है, और उतनाही मुझे दिया है। 2) जो दिया है वह उसके लिए और मेरी सामर्थ्य देखकर मुझे दिया है। वह दिया हुआ कितना चाहिए यह तय करने का अधिकार मुझे नहि है और वैसी वासना भी मुझे नहि रखनी चाहिए । और दिया हुआ मुझे उसके लिएही उपयोग करना है। 3) जैसे फुलो में सुगंध, वायु में बहने का गुण उसने दिया है, तब फुलने वायु होने की अपेक्षा रखना या वायु ने फुल होने का हट करना गलत है और भगवान के इच्छाप्रति अप्रसन्न होने जैसा है। ऐसी चित्त कि स्थिती में समर्पण का पतन हुआ है ऐसा समझना उचित होगा। उसने दि हुई सामर्थ्य से उसके प्रति समर्पित होना ही प्रसन्नता का रहस्य है।
4) अपने प्रति अज्ञान का या कमदर्जे का भाव या अपराधवृत्तीकी ग्रंथी यह पारमार्थिक गुनाह है। कर्मवृत्तिका त्याग या निवृत्ती यह ढोंग हो जाता है कारण वैसी कृती अर्थात भगवान ने जो मेरे लिए कार्य बनाया है उसके प्रति नाखुष होने जैसा है। और उन कर्मों के माध्यम से भगवान को मेरा समर्पण का भाव चाहिए था उस भाव को जैसे मै ही उखाड के फेंक रहा हूँ । इस कारण जो कर्म मुझसे हो रहे है वह मेरे माध्यम से वह कर रहा है और उसे ही समर्पित हो रहे है ऐसी भावदशा ईशपूजा है। 5) इस कारण उन सारे कर्मों के प्रति अखंड प्रसन्नभाव और उत्साह अगर चित्त में चोबीसो घंटे है तो भगवान मुझ पर खुष है ऐसा समझना चाहिए। बाह्य कर्मों के साथ मन (संकल्प एवं भोग), चित्त (आस्था), बुद्धी (स्मृति एवं गति) और अहंकार (अभिमान एवं अस्मिता) यह सारी अंतरीय शक्तियाँ ईश्वरार्थ उपयोग में लाना यह बात स्वाभाविक हो जाती है।
चित्त मे समाधान के साथ, अनंत ने मुझे जैसा रखा है मैं वैसा ही रहुँगा - संत तुकाराम कि इस वाणी में रखने कि संकल्पना कि गहनता चिंतनीय हो जाती है।
संसार कि इस क्रिडा में सोंपा गया काम औरों की सहायता से यथासंभव करना पडता है, ऐसे में किसी खिलाडी ने अगर उस कार्य को टाल दिया तो उस क्रिडा का आनंद समाप्त हो जाता है। ऐसे खिलाडी को आनंद भी चाहिए पर कार्य के बीना। ऐसे खिलाडी खेल को बिगाड देते है या उस खेल से अलग हो जाते है। ऐसे जीवों को तथाकथित कर्मसंन्यासी कहते है। इनको आनंद कि तो वासना है पर खेल नहि चाहिए। एक प्रकारसे भगवाननिर्मित क्रिडा में यह तो अपराधी सिद्ध हो जाता है। क्योंकी उसने उस खेल को ही झुटा समझा है।
संत ज्ञानेश्वर (भक्तों कि मां) गीतापर टीका करते समय, जब तक देह है तबतक कर्मत्याग अशक्य आहे यह बात पुरे जोरसे कहते है- और इन पांच कारणों से कर्म घटीत होता है ऐसे कहते है- देह, कर्ताजीव, विभिन्नइंद्रिये, कर्तृत्वशक्ति और दैव-देवोंका समुदाय। कर्मसंन्यास वही है जिस में अहंकार रहित ईश्वरार्पण या सद्गुरुर्पणका भाव है।
अहं-बुद्धि-चित्त के प्रति नकारात्मक भाव छोडकर उन्हे ईश्वर के प्रती जुडाकर रखना और जो जो मेरे कार्य है उन्हे उस ईश्वरप्रति समर्पण करना यह भाव ही कर्मसंन्यास है।
स्वामी विवेकानंद कहते है यह संसार याने शाला का बडा मैदान है। और हम उस शाला में जानेवाले बच्चों को उसपर खेलने के लिए छोडा गया है। ऐसी बुद्धी आनेपर फिर इस जगत में हसने के या खिलाडुवृत्ती के अलावा क्या हात में रह जाता है। ऐसे में हमारे माध्यम से खेलने वाला भी वह और खेल भी वह । इस कारण पकडने लायक क्या रह जाता है ? इस खेल को हि संत ज्ञानेश्वर चिद्विलास कहते है।
भोगविषयों के प्रति आसक्ति कि भावनांओं को अपेक्षा प्रेम कि भावना महत्त्वपूर्ण है । भोग भी वही है। अहं भावनांओं के प्रति अपराधभाव पकडने कि अपेक्षा उसे व्यापक स्वरुप देना उचित है। लोभ भी उसका, दंभ भी वही, मोह में मोहन ही वही। ऐसी स्थिती में षड्विकारों के प्रति यह विकार है ऐसी भावना जाकर षडभावयुक्त ऐसा मै वहि हूँ ऐसा व्यापक भाव उतर आता है। इस धारणा के कारण आत्मगंडयुक्त चित्त कि विपन्नावस्था समाप्त होती है। ईश्वरीय प्रेम कि अद्वितीय भावना ही ऋजुता है ! वह प्रकट हो जाती है। उस व्यापक अहंता में उस भगवंत के अवतरण हो जाते है।
भक्तिगंगा किनारे आया हुआ शरणागत उपासक सद्गुरु के सामने उस गंगा के प्रवाह के साथ अपने आपको बहा देता है। इस समर्पण को बुद्ध स्रोतापन्न होना कहते है। अर्थात यह समुद्र की आकांक्षा के लिए नहि है वरन् वह बहना हि लक्ष है। पहुँचने के लिए यह बहना नहि होता ।
शरणागत भाव के मंदिर का शिखर याने समर्पण भाव ! अर्थात उसमे समत्व भावना के साथ अर्पण होना उस भाव के अंतर्निहित है। अब सुखदु:ख कि भावनाओं का आवाहन उपासक भगवंत के प्रति समर्पित करता रहता है। कारण योगभ्रष्टताकी आत्मपीडा उसे मिटानी होती है। उसकी यह भोगभावनाओं के प्रति उपेक्षा में शुष्कता नहि होती वरन् समर्पित भाव होने के कारण वह उत्साहमय होता है। इस किनारे पर भोगमय अभ्युदय का सुख उत्सव मनाने के बाद आया हुआ वह वीतराग होता है। उसे उस किनारे का अकारण आनंदउत्सव का वैकुंठ बुला रहा है। उसे उस भोगविषय के प्रति आसक्ती भी नहि होती और क्रोधही भी नहि आता, इसेहि कृष्ण अनासक्त योग कहते है।
अब उपासकका अंधेरे के साथ झगडा समाप्त हो चुका है, कारण अब वह प्रकाश पथ का पांथस्थ बन चुका है। अर्थात वह अंधेरा है ऐसी व्याख्या भी उसके चित्त में प्रकट नहि होती ! कारण ईश्वरप्रेम मे हि क्षणक्षण वह उगता रहता है। ऐसा यह भीतर का रसार्जन दिव्य है।
गुमशुदि से अब तो पाला पड गया है इश्क का।
रहनुमा गुमराह दोनों की खतम है राह अब॥रहिमन॥
श्रीकृष्णार्पणमस्तु !
लेखक - दामोदर प्र. रामदासी

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