Friday, December 7, 2018

गुरु अगर शिष्य को बैसाखी देता हो तो वह शिष्य का शत्रू है।

कुछ बाते खयाल मे लेना आवश्यक है तो पहली बात शिष्य बीज है, बीज की यात्रा देखी होगी । पहले तो उसे जमिन में अपने आप को मिट्टी में दफन करना पडेगा, मिट्टी गिली होगी तब प्रभाव डालेगी, जमिन के भीतरका वातावरण, गरमी, बारीश, ठंड से स्वयम संघर्ष करना पडेगा। तब योग्य समय बीज टुटेगा, भीतरसे अतिकोमल अंकुर फलीत होगा। धीरे धीरे प्रकाश की दिशामे वह यात्रा करेगा। जमिन के बाहर प्रकाश की ओर जो अनंत की यात्रा है उसमें बगीचे का माली उसे एक मोड पर दिशा और दशा देगा तबतक उस बीज को अकेले ही जमिन में संघर्ष करना होगा। ऐसा नही है की माली को पता नही, वह बाहर से उस बीज की भी वह रक्षा करता है पर हस्तक्षेप नही करता। हस्तक्षेप करेगा तो वह उस बीज का शत्रू बन जाएगा। उस बीज को स्वयम संघर्ष से गुजरना होगा।
सद्गुरुका साधक जीवन में प्रवेश कब होता है। समत्वं योग उच्यते....हर क्षण कर्म में साधक समत्वका अभ्यास करता है तब जमिन के भीतर संघर्ष करने वाले बीज के समान उसकी स्थिती है। बार बार मन वापस प्रकृती की ओर दौडता है ना जाने कितने जन्मों का अभ्यास रहा होगा। अनावश्यक विचार, भावनाए दौडाती रहती है। बार बार उसे वापस लौटकर समत्व का अभ्यास करना पडता है। समत्व का अर्थ है, शरीर की संवेदनाए, मन की वृत्तिया उसे प्रतिक्रिया न देते हुए साक्षी भाव से देखना। इस देखने में ही संभावना है। नेती नेती, मै शरीर नही, मन नही तो में प्रतिक्रिया क्यूं दू। तो इस समत्व से योग सधता है। स्वयं से वह जुड जाता है। ध्यान की स्थिती याने हर क्षण वर्तमान में जीने का अभ्यास गहन होता है। और फिर एक क्षण आता है, बीज टूट जाता है। समत्व को सधे उस साधक को कर्मसाम्यदशा प्राप्त हो जाती है।
    चौथे चक्रपर याने हृदय, अनाहत चक्र तक उसकी यात्रा अब पुरी हो चुकी है। अनंत की दिशा में बढने में वह सक्षम है जैसे वह पौधा सूर्य की ओर बढने में अब सक्षम है।
    यह स्थिती बनते ही सद्गुरु प्रवेश कर अनुग्रह देते है। अनुग्रह- अनु+ग्रह= कृपा करना, स्वीकार करना, आश्रय व आधार देना। यह एक प्रकारचा शक्तिपात है। अनुग्रहित शिष्य कही भी होगा तब भी सद्गुरु की कृपाशक्तीका सूक्ष्म प्रवाह उस तक पहुचता है।
शिष्यकी कर्मसाम्यस्थिती
समर्थ रामदासस्वामी कहते है-
मी करुन अकर्ता। मी परेहून पर्ता। मजमध्ये वार्ता। मी पणाची नाही॥आत्मा.5-5॥
जे स्वामींच्या हृदयी होते। ते शिष्यासी बाणले अवचिते। जैसे सामर्थ्य परीसाते। लोहो आंगी बाणे॥आत्मा.5-8॥
- मै कर के भी अकर्ता हू, मै सबसे परे हू, मुझ में कर्ताभाव समाप्त हुआ है ऐसे शिष्य की अवस्था होते ही उसी क्षण सद्गुरु अपने हृदय की बात याने स्वरुपानुभूति शिष्य में परावर्तित करा देते है। जैसे परिसस्पर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है।
इस स्थिती का वर्णन गीता में है-
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: । नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥49॥गीता-18॥जिसकी बुद्धी कही भी आसक्त नही होती। जिसने अपने अंत:करण को स्वाधीन किया हुआ है। जो देहभोगादि में तृष्णारहित है। ऐसा मनुष्य संन्यास्त है। इस योग से श्रेष्ठ ऐसी निष्कर्मतारुप सिद्धी को वह प्राप्त करता है।
भगवान ज्ञानेश्‍वर भी इसपर प्रकाश डालते हुए कहते है-
तरी देहादिक हें संसारें । सर्वही मांडलेंसे जे गुंफिरें । तेथ नातुडे तो वागुरे । वारा जैसा ॥56॥
- जिस तरह वायू जाले में नही फसता, उसी प्रकार से देहादिक संसाररुपी जटीलता में साधक फसता नही
पैं परिपाकाचिये वेळे । फळ देठें ना देंठु फळें । न धरे तैसें स्नेह खुळें । सर्वत्र होय ॥57॥
- फल परिपक्व होते ही वृक्ष का त्याग करता है। फिरसे वृक्ष से नाता नही रहता, उसी प्रकार से सारी बातो में मोह समाप्त हो जाता है।
ऐशी कर्म साम्य दशा । होय तेथ वीरेशा । मग श्रीगुरु आपैसा । भेटेचि गा ॥66॥
ऐसे ही कर्म के योग से हे वीर अर्जुन जब साम्यावस्था प्राप्त होती है तब अपने आप ही श्रीगुरुकी भेट होती है।
    इस से पहले अगर कोई गुरु के नामपर साधक को संमोहित कर अपने चंगुल में फसा कर उसका संघर्ष समाप्त कर डालता है ऐसा कथित गुरु चोर के समान ही है।
    आखिर उद्धरेदात्मानात्मानं ......मै ही मेरा उद्धार कर्ता हू......यह सूत्र शिष्य के लिए मूल सूत्र है।
सद्गुरुका साधक जीवन में प्रवेश कब होता है। समत्वं योग उच्यते....हर क्षण कर्म में साधक समत्वका अभ्यास करता है तब जमिन के भीतर संघर्ष करने वाले बीज के समान उसकी स्थिती है। बार बार मन वापस प्रकृती की ओर दौडता है ना जाने कितने जन्मों का अभ्यास रहा होगा। अनावश्यक विचार, भावनाए दौडाती रहती है। बार बार उसे वापस लौटकर समत्व का अभ्यास करना पडता है। समत्व का अर्थ है, शरीर की संवेदनाए, मन की वृत्तिया उसे प्रतिक्रिया न देते हुए साक्षी भाव से देखना। इस देखने में ही संभावना है। नेती नेती, मै शरीर नही, मन नही तो में प्रतिक्रिया क्यूं दू। तो इस समत्व से योग सधता है। स्वयं से वह जुड जाता है। ध्यान की स्थिती याने हर क्षण वर्तमान में जीने का अभ्यास गहन होता है। और फिर एक क्षण आता है, बीज टूट जाता है। समत्व को सधे उस साधक को कर्मसाम्यदशा प्राप्त हो जाती है।
    चौथे चक्रपर याने हृदय, अनाहत चक्र तक उसकी यात्रा अब पुरी हो चुकी है। अनंत की दिशा में बढने में वह सक्षम है जैसे वह पौधा सूर्य की ओर बढने में अब सक्षम है।
    यह स्थिती बनते ही सद्गुरु प्रवेश कर अनुग्रह देते है। अनुग्रह- अनु+ग्रह= कृपा करना, स्वीकार करना, आश्रय व आधार देना। यह एक प्रकारचा शक्तिपात है। अनुग्रहित शिष्य कही भी होगा तब भी सद्गुरु की कृपाशक्तीका सूक्ष्म प्रवाह उस तक पहुचता है।
शिष्यकी कर्मसाम्यस्थिती
समर्थ रामदासस्वामी कहते है-
मी करुन अकर्ता। मी परेहून पर्ता। मजमध्ये वार्ता। मी पणाची नाही॥आत्मा.5-5॥
जे स्वामींच्या हृदयी होते। ते शिष्यासी बाणले अवचिते। जैसे सामर्थ्य परीसाते। लोहो आंगी बाणे॥आत्मा.5-8॥
- मै कर के भी अकर्ता हू, मै सबसे परे हू, मुझ में कर्ताभाव समाप्त हुआ है ऐसे शिष्य की अवस्था होते ही उसी क्षण सद्गुरु अपने हृदय की बात याने स्वरुपानुभूति शिष्य में परावर्तित करा देते है। जैसे परिसस्पर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है।
इस स्थिती का वर्णन गीता में है-
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: । नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥49॥गीता-18॥जिसकी बुद्धी कही भी आसक्त नही होती। जिसने अपने अंत:करण को स्वाधीन किया हुआ है। जो देहभोगादि में तृष्णारहित है। ऐसा मनुष्य संन्यास्त है। इस योग से श्रेष्ठ ऐसी निष्कर्मतारुप सिद्धी को वह प्राप्त करता है।
भगवान ज्ञानेश्‍वर भी इसपर प्रकाश डालते हुए कहते है-
तरी देहादिक हें संसारें । सर्वही मांडलेंसे जे गुंफिरें । तेथ नातुडे तो वागुरे । वारा जैसा ॥56॥
- जिस तरह वायू जाले में नही फसता, उसी प्रकार से देहादिक संसाररुपी जटीलता में साधक फसता नही
पैं परिपाकाचिये वेळे । फळ देठें ना देंठु फळें । न धरे तैसें स्नेह खुळें । सर्वत्र होय ॥57॥
- फल परिपक्व होते ही वृक्ष का त्याग करता है। फिरसे वृक्ष से नाता नही रहता, उसी प्रकार से सारी बातो में मोह समाप्त हो जाता है।
ऐशी कर्म साम्य दशा । होय तेथ वीरेशा । मग श्रीगुरु आपैसा । भेटेचि गा ॥66॥
ऐसे ही कर्म के योग से हे वीर अर्जुन जब साम्यावस्था प्राप्त होती है तब अपने आप ही श्रीगुरुकी भेट होती है।
    इस से पहले अगर कोई गुरु के नामपर साधक को संमोहित कर अपने चंगुल में फसा कर उसका संघर्ष समाप्त कर डालता है ऐसा कथित गुरु चोर के समान ही है।
    आखिर उद्धरेदात्मानात्मानं ......मै ही मेरा उद्धार कर्ता हू......यह सूत्र शिष्य के लिए मूल सूत्र है।

Sunday, November 4, 2018

वैराग्यापरते नाही भाग्य !

       राजा भर्तृहरी हा उज्जयनीचा राजा पत्नी पद्माक्षीसह राज्य करत होता. एकदा त्याला ब्राह्मणाने अपूर्व फळ दिले. त्या दिव्यतेचा, अमरतेचा लाभ पत्नीला व्हावा म्हणून तीला खायला दिले. पत्नीचे प्रेम राजावर नव्हते. तिने ते तिच्या प्रियकराला दिले, प्रियकराचे प्रेम राणीवर नव्हते तर ते नर्तकीवर होते, त्याने नर्तकीला फळ खायला दिले, गंमत अशी की नर्तकीचे प्रेम ब्राह्मणावर होते. तिने त्याला फळ दिले. ते फळ परत आपल्याला मिळालेले पाहून त्याने राजाला खुलासा विचारला तर राजाने फळाच्या प्रवासाचा शोध घेतला. दुखावलेल्या भर्तृहरीला त्यामुळे वैराग्य आले. धाकट्या भावाला राज्य देऊन तो रानात तपश्‍चर्येला गेला. पश्‍चात्ताप दग्ध राणीही त्याच्याबरोबर गेली. वाटेत तिला साप चावला. याचे अतीव दु:ख राजाला झाले कारण त्याचे मन अजुनही राणीतून निघालेले नव्हते. पण चर्पटीनाथ ऋषीने तिला जीवंत केले. तिचे पिंगला हे नाव पडले. पण ती पुढे मरण पावली. गोरक्षनाथांनी परत शंभर पिंगला निर्माण केल्या व भर्तृहरीला दाखवल्या. आयुष्याच्या क्षणभंगुरत्वाचे यथार्थ दर्शन झाल्याामुळे राजाचे वैराग्य अधिक दृढ झाले. ज्या ज्या गोष्टीत रस घेतला त्याचे यथार्थ रुप बघितले तर विरस वा वैराग्य निर्माण होईल.
      हा राजा भर्तृहरी म्हणतो अरे साधका ! वियोग दोन प्रकारचा आहे - अवश्यं याता रश्‍चिरत मुषित्वाऽपि विषया:। वियोगे को भेदस् त्यजति न जनो यत्स्वयम मून्॥ व्रजन्त: स्वातंत्र्याद तुलपरितापाय मनस:। स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनंतं विदधति॥12॥ भर्तृहरी वैराग्यशतक॥ अर्थ- हे विषय मोठ्या संकटाने जरी मिळवले व खुप काळापर्यंत जरी जवळ राहिले तथापि कधी तरी ते आपणास सोडून जातातच. अर्थात आपणास त्यांचा वियोग होतो. आता हा वियोग दोन प्रकारचा. इंद्रिय शमामुळे, वैराग्य- संयमामुळे विषय सुटतात हा होणारा विषय वियोग पहिला व विषयच आपल्याला सोडून जातात हा दुसरा वियोग. आपल्या मनात नसताना विषय आपल्याला सोडतात हा वियोग संताप देणाराच आहे. त्यापेक्षा पहिला वियोग अत्यंत सुख देतो. यास्तव दुसरा वियोग होण्यापूर्वी पहिला आपण संपादावा.
    समर्थ याच महत्त्वाच्या विषयावर उपासकाला जागे करताना म्हणतात
म्हणौन विवेक आणि वैराग्य। तेचि जाणिचे महद्भाग्य। रामदास म्हणे योग्य । साधु जाणती॥20॥दासबोध॥
     विवेकाची पराकाष्ठा झाली की वैराग्य स्थिर होते. कारण परत ती बुद्धी माघारी फिरत नाही. मग त्या साधकाला या जगात काही धरावे वा काही सोडावे या दोन्हीही भावना होत नाहीत.
    मनुष्याची समग्र चेतना तीन छोट्या शब्दांभोवती फिरताना दिसते.- विवेक, बुद्धि व वृत्ति। विवेकाने श्रेष्ठ चेतनेचे लोक चालतात, बुद्धि ने मध्य चेतन स्तराचे लोक चालतात तर वृत्ति चेतनेची निम्नतम दशा आहे. म्हणून समर्थ विवेकाला महत्त्वाचे स्थान देतात. कारण त्यामुळे क्षणभंगुरता स्पष्ट कळते. मग नित्य काय आहे याचा शोध सुरु होतो.
    आद्य शंकराचार्य वैराग्याची व्याख्या करताना म्हणतात- तद्वैराग्यं जिहासा मा दर्शनश्रवणादिभिः । जुगुप्सा मा देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि ॥ विवेकचुडामणी21॥ अर्थ- अत्यंत सामान्य जीवजंतूंच्या देहापासून ब्रह्मदेवासारख्या सर्वोच्च अशा देहापर्यंत लाभणार्‍या सर्व नाशवंत सुखादी भोगवस्तूंविषयी ऐकून वा पाहून (विवेकामुळे) वाटणारा तिटकारा, त्याज्यबोध म्हणजेच वैराग्य होय. आचार्य म्हणतात की वैराग्य जसे विषयांपासून असते तसे ते स्वभाव व गुणांपासुनही असते.
ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु वैराग्यं विषयेष्वनु। यथैव काकविष्ठायां वैराग्यं तद्धि निर्मलम्॥अपरोक्षानुभूति॥-काकविष्ठेप्रमाणे विषयसंसर्ग दूर सारुन ब्रह्मभावातच नित्य राहावे हेच खरे वैराग्य आहे.
    नित्य संसारातील क्षंणभंगुरता व दु:खाच्या अनुभवाने सामान्य जीवाच्या ठिकाणी हळूहळू या दु:खातून मोकळे होण्याची मुमुक्षा तयार होऊ लागते, त्याचा विवेक त्याला साथ देतो. वैराग्य म्हणजे राग वा दु:खाच्या जगतापासून वितृष्णा, फ्रस्ट्रेशन. प्रत्येक जीवाला प्रत्येक भोगानंतर एक पोकळी निर्माण झाल्याचा अनुभव येतो. कारण ऊर्जा बाहेर निघुन गेलेली असते. ऊर्जा जाताच एक विषाद, पश्‍चात्ताप निर्माण होतो. वैराग्य भाव तयार होतो. हा मनोवैज्ञानिक प्रवास रोजचाच आहे. एका स्त्री पासुन विरक्त होणे सामान्य घटना आहे पण एकुण स्त्री पासुन विरक्त होणे खुप असामान्य घटना आहे. आणि याच असामान्य घटनेकडील प्रवास तीव्र वैराग्य आहे. एका सुखाच्या व्यर्थतेमध्ये समस्त सुखांची व्यर्थता दिसून येणे, अशाप्रकारे एका सुखातील डिसइलूजनमेंट मध्ये समस्त सुखांची कामना क्षीण झाली तर जी आपली स्थिति बनते त्याचेच नाव वैराग्य आहे.
    वैराग्याचे क्षण रोजच येत राहतात पण ते धरुन ठेवणे त्याला शक्य होत नाही कारण पूर्वसंस्कार सतत प्रकृतीकडे खेचत राहतात. जिही आपणपे नाही देखिले। तेचि इहि इंद्रियार्थी रंजले। जैसे रंकु का आळुकैले। तुषांते सेवी॥ज्ञाने.5-110॥- ज्याप्रमाणे भुकेने व्याकुळ झालेला दरिद्री माणुस कोंडा देखिल खातो. त्याप्रमाणे ज्यांनी आत्मस्वरुप सुखाचा अनुभव घेतला नाही, तेच इंद्रिय विषयसंबंधांपासून होणार्‍या विषयसुखात रंगलेले असतात.
    ज्याला दु:ख हवे आहे त्याने प्रकृतीचा ध्यास धरावा. जयास वाटे सीण व्हावा। तेणे विषयो चिंतीत जावा। विषयो न मिळता जीवा। तगबग सुटे॥ (दा.3-10-61) पण विवेकपूर्ण जीव सद्गुरुला प्रश्‍न करतो- देवासी वास्तव्य कोठे । तो मज कैसेनि भेटे। दु:खमूळ संसार तुटे। कोणेपरी स्वामी ॥ (दा.3-10-69)
    हा दु:खाचा अनुभव परत नको, अनंत आनंद कसा मिळेल याचा मार्ग दाखवण्यासाठी, ते वैराग्याचे क्षण धरुन ठेवण्यासाठी सद्गुरु वा भगवंत अभ्यास वा विधीला चिकटून राहायचा सल्ला देतात- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥गीता6.35॥ श्रीमाऊलीही म्हणते- परि वैराग्याचेनि आधारे। जरि लाविले अभ्यासाचिए मोहरे। तरी केतुलेनि एक अवसरे। स्थिरावेल॥ज्ञाने.6.419॥ अशा अभ्यासाने गाठी म्हणजेच वासना. जशा गाठी बांधल्या त्याच्या विरोधी क्रियेनेच त्या सुटणार. सूत गुंतले ते उकलावे। तैसे मन उगवावे। मानत मानत घालावे । मूळाकडे॥दास.20-9-19॥ हळूहळू अभ्यासाने मनाच्या पार स्वत:चे दर्शन साधकाला होईल.
म्हणून त्या अनंताला दाखवणार्‍या वैराग्याला प्राणांमध्ये आत्मसात करण्याचा उपाय म्हणजे अभ्यास.
    अर्थात संसार नष्ट करणे ही वैराग्याची क्रिया नसून संसार - आत्मैव एतद् अशा स्वसंवेद्यतेने अनुभवणे हेच वैराग्य आहे. अवघाचि संसार सुखाचा करीन। आनंदे भरीन तिन्ही लोक॥
    शेवटी म्हणावेसे वाटते की वैराग्य म्हणजे आता असं काहीही माझ्यासाठी राहिलेलं नाही की ज्याच्यासाठी मी उद्या जगु इच्छितो ! हा महामृत्यूचा संकल्प म्हणजेच वैराग्य !

Friday, October 5, 2018

छोट्या छोट्या संकल्पांचे प्रयोग- आंतरिक क्रांतीसाठी

  
सकाळी उठल्यापासून रात्रीपर्यंत आपल्याला शांत होण्यासाठी खुप संधी मिळतात. पण सजग राहण्याचा अभ्यास नसेल तर अनावश्यक हालचाली, कामं, अति विचार यातून आपण स्वत:ची ऊर्जा अनावश्यक वाया घालवत असतो. काही सेकंदांसाठी, मिनिटांसाठी अगदी छोटे छोटे संकल्प करुन हळूहळू आपण रुपांतरणाला सुरुवात करु शकू. जसे अगदी सकाळी ब्रश करताना काल काय झाले याचा विचार करण्यापेक्षा पुढचे काही सेकंद तो ब्रश दातांवरुन चालवताना ज्या संवेदना उठतात त्याबाबत मी सजग राहील किंवा कार चालवताना आज रस्त्यावरचे बोर्ड मी उगाच वाचणार नाही. आजचे वर्तमानपत्र वाचणार नाही, बँकेच्या रांगेत उभे आहोत तर काही सेकंदासाठी डोळे मिटेल, आजुबाजुच्या वातावरणातील आवाज ऐकेन, जेवायला बसलो तर भाजीचा स्वाद, रंग, तोंडात जीभ फिरणे याची जाणीव ठेवेन, काही सेकंद अगदी काहीच विचार उत्पन्न होऊ देणार नाही. केवळ जाणीव ठेवेन ! संध्याकाळी पुढील दोन तास टीव्ही नको बघायला किंवा खुर्चीवर बसल्यावर पंधरा-वीस श्‍वासप्रश्‍वास माझ्या साक्षीने चालतील. चला आज रात्री लवकर झोपूयात ! उद्या पहाटे ब्राह्ममुहुर्ताला चार वाजता उठून बघु, आज एखादा प्राणायाम करुन बघु !, आज किमान दोन तरी सूर्यनमस्कार घालू, पुढील काही सेकंद चेहऱ्यावर स्मित हास्य ठेवेन, कोणाला एखादा आज भारी विनोद सांगून खळखळा हसवेन. काय असे संकल्प आपण करु शकू ? बघु तरी काय होते.
    तुम्ही म्हणाल खरंच यामुळे काही फरक पडतो का ? माझा अनुभव सांगतो, क्रांती एकदम होत नाही, पण छोटे छोटे प्रयोग हळू हळू बदल घडवतात. मन ही सतत चाललेली घटना आहे. त्यामुळे आत्ता या क्षणाला या घटनेप्रति सजग व्हायला हवे. छोटे छोटे काही सेकंदाचे हे प्रयोग तणावपूर्ण वाटणार नाहीत. आपण आपल्याशीच खेळलेला गंमतीशीर खेळ होईल. यातूनच आपण हळूहळू आत्मवान होत जाऊ ! मनाची अराजक क्रिया कशीही करुन थांबवाच !
    खरं सांगा, आपण कुठला राजकीय वा जागतिक उलाढालीचा वा एखाद्या व्यक्तिचा विचार केल्यामुळे काय फरक पडणार आहे ? जग अनादी काळापासून चालूच आहे, अनेक जागतिक समस्या, मानवी प्रश्‍न, राजकीय गुंतागुंत हे चालूच आहे. आपण या जगात नव्हतो त्यावेळीही हे सर्व चालूच होते वा उद्या आपण हे जग सोडून जाऊ तेव्हाही हे सर्व चालूच राहील. पण आपल्याला मिळालेला जन्म आपण उगाच काही अनावश्यक क्रियांमध्ये वा विचारांमध्ये वाया घालवत आहोत, धावतोय खूप पण पोहोचत मात्र नाही. हा रोजचाच अनुभव आहे. पण हे अनावश्यक विचार सोडल्यामुळे मात्र आपल्यात क्रांतीकारक बदल होऊ शकतात. ही आपली अतिशय व्यक्तीगत, आंतरिक यात्रा आहे. छोटी छोटी पावलं खुप अंतर गाठू शकतात. या जगात किमान एकतरी सघन, समजदार, विवेकपूर्ण नवीन व्यक्तित्व आपण आपल्यात जन्माला घालू शकतो. ही सुद्धा जगाची एक समस्या सोडवण्याची युक्तीच नव्हे का ?

Friday, September 14, 2018

फुकटचा मैत्री भाव !


    एक संन्यासी हिमालयातून चाललेला होता. त्याच्या डोक्यावर ओझे, दुपारची वेळ, कडक ऊन, घाम, थकलेले शरीर अशी त्याची अवस्था. त्याच्या समोर त्या पहाडात राहणारी लहान मुलगीही चाललेली होती. तिच्या खांद्यावर तिचा लठ्ठ, वजनदार लहान भाऊही होता. साधुला दया वाटून त्याने सहानुभूतीने त्या मुलीला विचारले, ‘मुली, खुप वजन असेल त्याचे, एवढे ऊन, कठीण चढ !’ त्या मुलीने हैराणीने त्याच्याकडे बघितले. म्हणाली, ‘हे आपण काय म्हणत आहात ? वजन तर तुमच्या डोक्यावर आहे, हा तर माझा छोटा भाऊ आहे !’ साधु स्वत:शी म्हणाला, "‘मी खूप शास्त्र वाचले पण असे अद्भूत वचन ऐकले नाही. मला पहिल्यांदाच कळाले की छोट्या भावामध्ये वजन नसते."’ हृदयातल्या प्रेमभावनेला वजन नसते. प्रेम वजनाला नष्ट करते. माणूस हलका होतो.
      छोट्या छोट्या कामांनाही वजनदार बनवता प्रेमाने हलके करता येईल.
      ध्यान अवस्थेनंतर अनुभवाला येणारी प्रगाढ शांती आणि गहन तृप्ती चे एकमेव कारण हे असते की आपण आपल्याबरोबरच जगताशीही तादात्म्य पावलेलो असतो. आपल्यातले चैतन्य जगतातले चैतन्य कळत नकळत एक झालेले असते. ध्यानावस्थेत आपण विराटाकडे झेप घेतलेली असते त्यामुळे ध्यानानंतर आपणहून समग्र जगताविषयी प्रेम व मैत्री वाटायला लागते. किंबहुना ध्यानापूर्वी जरी आपण थोडी जगत मैत्रीविषयी कल्पना केली तरी एक अद्भूत शांती अनुभवयाला येते.
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥6-32॥- हे अर्जुन ! जो योगी आपल्याप्रमाणे सर्व प्राणिमात्रांना समभावाने पाहातो, तसेच सर्वांमध्ये सुख वा दु:ख समदृष्टीने पाहातो, तो योगी अत्यंत श्रेष्ठ मानला जातो.
हा मैत्रीपूर्ण समत्वाचा भावच वैश्र्विक मैत्रीचे स्पंदन आहे.
म्हणौनि असो ते विशेषे। आपणपेयासारिखे । जो चराचर देखे। अखंडित॥6-404॥
या अखंडीत भावनेसाठी मात्र ध्यानात उतरायला लागेल.
      थोडी कल्पना करूयात वा प्रयोग करून बघुयात ध्यानाला बसल्यावर, रस्त्याने चालताना, उठताना, बसताना, एकांतात कुठेही सगळीकडे आपलेच प्रेमळ मित्र आहेत. वस्तु, व्यक्ती, पक्षी, वृक्ष, प्राणी सगळेजण आपले मित्र आहेत. मैत्री प्रेम आपल्याला परिव्याप्त करीत आहे. हा मैत्री धारणेचा प्रयोग सर्वात सोपा आहे.
      या प्रयोगानंतर आपल्याला चित्तामध्ये या मैत्रीभावनेमुळे आपोआप शांती येण्यास प्रारंभ होईल. जगताविषयीचा दुर्भाव अशांतीचे कारण आहे. विशेष म्हणजे रात्री झोपताना हा प्रयोग करून झोपाल तर सकाळी एका अभिनव शांतीसह आपल्याला जाग येईल. सकाळी उठल्यावरही या भावनेला पुन्हा जागवा. सतत चोवीस तासात जेव्हा स्मरण होईल या भावनेला प्रवाहीत होऊ द्यात.
      आपल्याला अनुभवाला यायला लागेल की आपल्या भोवतालचे समग्र जगतही आपल्यावर प्रेम करायला लागलेले आहे. आपल्याविषयी तेढ असणारे अचानक आपल्याशी प्रेमाने बोलायला लागलेले आहेत. कारण आपल्या संवेदनाही इतरांच्या अस्तित्वाला छेदून जातात. कुठेही जाताना आपल्या चैतन्याचे एक वलय घेऊन आपण फिरत असतो. आपले पॉझिटीव्ह, निगेटीव्ह तरंग इतरांना प्रभावीत करत असतात. बुमरँगसारखे सारे आपल्याकडे परत येत असते. त्यामुळे आपण सकारात्मक तरंग निर्माण केले पाहिजेत. यामुळे आपली अनेक कामे होतील.