Sunday, October 25, 2015

तुम सनातन धर्मीय नही हो ?
     हरयाना में दलित उत्पीडन मामला हो , गुजरात में दलितों को असुरक्षीत लगना यह घटनाए घोर संताप पैदा कर देता है। हरयाना में इतनी बेरहमी से क्या कोई अपनेही बांधवोंको मार सकता है ? राक्षसोंकी यह पुरानी पिढी समाप्त करने में हम सनातन धर्मीय आज भी पराजीत हुए है। कृष्ण, बुद्ध के वंशज कहने में हमे शरम आनी चाहिए । गोमाता को बचाने में जुटे हम क्या उन मानवों को बचाने में सहायता नही कर सकते ? क्या उनमे वही देवता हमे नजर नही आते  ? स्वामी विवेकानंदजी ने कहा की ‘ब्राह्मणो और क्षत्रियों के अत्याचार अब स्वयं उन्ही के सिरों पर चक्रवृद्धि व्याज सहित टूट पडे है और कर्मफल के अटल नियमानुसार उन्हे एक सहस्र वर्ष तक दासत्व और अध:पतन भोगना पड रहा है।’
   और अब सवर्णीय सुधरे नही तो आने वाले समय में अनेकानेक डॉ. अंबेडकर जैसे विद्वान सवर्णोंका गर्व परास्त करने के लिए जन्म लेते रहेंगे। डर तो इस बात का है खंड खंड में बटा हुआ हिंदु समाज विद्रोह के तप्त लाव्हा खंड पर बैठा अनेकानेक टुकडो में बिखर जाएगा और उसके पिछे खडा वह अभिजात ऐतिहासीक उदात्त आध्यात्मिक गौरीशंकरसा अद्वैत विचार उस के निचे राख बनकर दब जाएगा अपितु दब गया है । इसिलिए तो हमारे समाज की यह हालत है । पशुवत तमोगुण हमारा स्वभाव बन चुका है।
   इतिहास में ऐसा बार बार हुआ है लेकिन कई कृष्ण, कई बुद्ध वीरोचित आवाहन स्वीकर कर उस रणभूमी में अपने अपने तरीकेसे उस विचार को उस राख से निकालकर फिरसे उसमें अग्नि प्रज्वलित कर करोडो हृदयों मे फिरसे उसे स्थापित किया है।
    वर्तमान में प्रश्‍न यह है की उस विचार को बचाने वाले कृष्ण या बुद्ध को जन्म लेने में कई सदिया निकल जाती है। क्या हम मनुष्यप्राणीयोंके पास क्या इतना समय बचा है ? क्या अहंकार की इस लडाई में क्या मानवीय मूल्य जिवीत रह पाएंगे ? यह रक्तबीज राक्षस अनेकानेक आकारो में हमे पुकार कर अपने जैसा बना रहा है ? कृष्ण और बुद्ध मानवोंकी कोख से ही जन्म लेते है, लेकिन हमारे हरकतों से कम से कम क्या इस संभावना को हमने जिवीत रखा है की वह हमारे कोख से जन्म लें सके? उस धारणाशक्ति को क्या हमने स्वयं समाप्त नही किया है ?
    पता है हमे क्या है सनातन धर्म ? अध्यात्मिक समझ न होने के कारण कुछ पुराणवादी परंपरा, जात, संप्रदाय, वंश के नामपर हम कमअकल लोगो ने जिवित रखी हुई मुर्दा जीवन पद्धती याने हमारा सनातन धर्म बन चुका है ? मणिकर्णिका घाटपर अपने शिष्योंको साथ लेकर चलनेवाले आदी शंकर को अपने चार कुत्ते साथ लेकर चलनेवाले उस चांडाल ने जो बात समझाई वह है सनातन धर्म । अपने मार्ग में आनेवाले उस चांडाल को दूर होने के लिए जब शंकर ने कहा तब उसने जो प्रश्‍न पुछा उससे जो शंकर के चित्त में जो विद्रोह उठा उस वैराग्य का नाम सनातन धर्म है ? परंपरा को नकार कर अपने सनातन तेज से नित्यनुतन सिद्ध रह कर अंगभूत गुणोंसे चमकता रहता है वह है सनातन धर्म ! चांडाल ने पुछा, ‘अन्नमयादन्नमयं चैतन्यमेव चैतन्यात्। यतिवर दूरी कर्तुं वाञ्छसि किं बहिर्गच्छ गच्छेति ॥ प्रत्यगवस्तुनि निस्तरंग सहजानन्दावबोधाम्बुधौ। विप्रोऽयं श्‍वपचोऽयमित्यपि महान् कोऽयं विभेद-भ्रम:॥ किंगंगाम्बुनि बिम्बतेऽम्बरमणौ चाण्डाल वीथी पय: पुरै। वान्तमस्ति कांचनघटे मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे॥‘ ‘हे यति ! अन्नमयकोश (तेरा और मेरा शरीर अन्न से ही बना है, सृष्टी बनाने में भेद नही करती) और साक्षीचैतन्य (आत्मा) तुझ मे और मुझ मे एक ही है (यही अद्वैत विचार है)। ब्राह्मण और श्‍वपच (नीच जातवाला) भेदको वहा स्थान ही नही है। सूर्य का बींब गंगा में और मदिरा पात्र में समान रुप से प्रतिबिंबीत होता है न ? क्या सूर्य में कुछ फरक होता है ? गंगा में पडा है इसलिए पवित्र और मदिरा पात्र में पडा है इसलिए अपवित्र, क्या ऐसा होता है ? आत्मतत्त्व भी वैसा ही एक जैसा ही प्रतिबींबित होता है; उस में उचनीच का भाव नही है ! यह चांडाल, यह ब्राह्मण क्या यह भेद भ्रम नही है ? बोलो आचार्य ! क्या मेरी बात सही नही है ?
    इस दिव्य भाषण को सुनकर आचार्य स्तिमित हुए। बोले,‘ ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्र विस्तारितम्। सर्वं चैतदविद्ययां त्रिगुणया शेषं मया कलितम्॥ इत्थं यस्य दृढा मति: सुखतरे नित्ये परे निर्मले। चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम॥- हे चांडाल, मेरी सुन, सब ब्रह्म ही है। और सकल जग चिन्मात्राकाही विस्तार है। यह सब त्रिगुणात्मक अविद्याके कारण मैने कल्पित किया है। इस प्रकारसे जिसकी मति उस सुखैक, नित्य व निर्मल ऐसे श्रेष्ठ सद्वस्तूपर दृढ हुई है, फिर वह ब्राह्मण है या चांडाल वह साक्षात मेरे गुरुदेव ही है ऐसी मेरी दृढभावना है ! ऐसा कहकर आचार्य उस को नमस्कार करते है।
    क्या यह उदात्त विचार सनातन धर्म नही है ? अगर है तो अपने आप को सनातन धर्मीय कहने वालो इस विचार को तुने पराजित कर दिया है ! जब आग की तपन उन दलित नन्हे बालकोंको और उनके माता पिता को झोपडे में जला रहि थी उसी वक्त तेरा यह विचार भी तुने उस अग्नि में जला कर भस्म कर डाला। अब बची है तेरे पुराणवादी धर्म की पराजय की राख। अपने उन्नत अहंकारी ललाट पर अब लगाओ उस राख को ! और चलते बनो ! तुम्हारे उन मिथ्या देवताओंके पिछे ! मानवरुपी भगवान को तो तुने जला डाला ..... मुझे माफ करना तुम्हारे तथाकथित धर्म का मै भागिदार नही हूँ, विद्रोह करता हूँ मैं तुम्हारे पुराणवादी उंचनीचवाले धर्म के विरोध में क्योंकी मैं सनातन धर्मीय हूँ।
(लेखन- दामोदर प्र. रामदासी)

Sunday, October 11, 2015

🌸🌸ज्ञानेश्वरी अ. 12, ओवी क्र. 35🌸🌸
 तरी अस्तुगिरीचिया उपकंठी । रिगलिया रविबिंबापाठी । रश्मी जैसे किरीटी । संचरती गा ॥35॥
 पूर्वांचल से उदीत होनेवाला सूर्य अस्त होने के लिए पश्‍चिमांचल की ओर जा रहा है । उसकी किरने उसके पिछे पिछे जा रही है । भगवान ज्ञानेश सूर्य और किरनोंके माध्यमसे भक्त और भगवान का अद्वैत समझाना चाहते है । वेदो में किरनों को गाय की उपमा दी गई है। गोपवेषधारी श्रीकृष्ण शाम होते ही घरकी ओर चल पडते है तो गौवे भी उनके पिछे पिछे गोकुल की ओर उनका अनुगमन करती है। श्रीज्ञानेश के इस मनोहारी वर्णन से यह दृश्य आंखो के सामने सहज ही आ जाता है। भौतिक विश्‍वके रमणीय अस्ताचल के सृष्टीदर्शन ज्ञानेश प्रकट करते है। यह किरने तो चंचल गौवे ही है । वही किरनरुप गौ विष्णुरुप रवि के पिछे स्वगृही अर्थात विष्णुपद की ओर चली जा रही है। यह तो अद्वैत भक्ती की पराकाष्ठा का वर्णन है। यहा सूर्य कृष्ण याने उपास्य है, किरन गौ है याने उपासक और अस्तांगिरी वह गोलोक है । यह बात यहा स्पष्ट हो जाती है । अध्यात्म में किसी भी पथ की तब पूर्णता हो जाती है जब उपास्य-मंत्र-लक्ष्य-विधी स्पष्ट हो जाती है। किरने भक्त है, सूर्य भगवान है और प्रकाश लीलोत्सव यह त्रयी एक सूर्य मे ही अवस्थित होती है। द्वैत तो प्रतीत हो रहा है पर अखंड सामरस्य स्वयंसिद्ध है।  अद्वैतभक्तिका यह उत्सव ज्ञानेश की परंपरा में ही दिखाई देता है अन्यत्र तो द्वैतपूर्ण साधना होती है। तुज सगुण म्हणो की निर्गुण रे। सगुण निर्गुण एकु गोविंदु रे॥ सूर्य किरने स्वभावत: सूर्य से आबद्ध रहती है वैसे ही भक्तचित्त भगवंतसे आबद्ध है। यही भक्त की शरणागतता है। पै आपुलेनि भेदेविण। माझे जाणिजे जे एकपण। तयाचि नांव शरण। मज येणे गा॥ (ज्ञानेश्‍वरी 18.1398) यह शरणागतता ही कृपा है। भगवंत ही भक्तरुपसे, कभी भगवंतरुपसे, कभी शिष्य तो कभी सद्गुरुरुपसे, वही भावदशासे, साधनांग भेदपूर्णरुपसे प्रतीत होते है। यही तो अद्वैत भक्तिविलास है। यहा तो भगवान ज्ञानेश और एक रहस्योद्घाटन करते है। योगशास्त्र में नाभिस्थान का जो प्रकाश है वही पूर्व है। हृदयकमलके आगे सहस्रारतक पश्‍चिम दिशा मानी जाती है। उदयकालीन आरक्त वर्णके समान कुंडलिनी-उत्थान के समय आरक्त वर्ण प्रकाश दिखायी देता है यह योगियोंका अनुभव है। नाभिस्थानका परमाशक्ति भाव अर्थात कुंडलिनी जब ऊर्ध्वगतिक होकर पश्‍चिम की ओर निकलती है तब पश्‍चिम दिशा में अंतिम स्थान याने सहस्रार कमल की ओर जाने लगती है। ज्ञानेश के मत से पश्‍चिम का क्षितीज हृदय है। कारण यह कुंडलिनी जगदंबा-चित्कला हृदयचक्र में आते ही हमारा ‘अहं’ अस्त हो जाता है। और वहा उसका स्वरुप मारुति (मारुतितत्त्व) इस संज्ञाको प्राप्त हो जाती है। जहा मारुति वही राम होते है। भक्त इसिलिए ‘सकलहृदयरामु’ ऐसा कहते है। नाभिस्थान का प्रकाश आरक्त रंगक तो हृदयस्थानका सुवर्ण रंगका होता है। यह अनुपम वर्णन करके ज्ञानेश यह रहस्योद्घाटन करते है। और एक मजा देखो,  ज्ञानेश के सद्गुरु श्रीनिवृत्तीनाथ कहते है, फळले भाग्य माझे......पश्‍चिमेसी चालविले आत्मस्थिती निर्धारी। पंढरपूरका विठ्ठल मंदिर पूर्वाभिमुख है। ज्ञानेश के सद्गुरु श्रीनिवृत्तीनाथ विठ्ठल दर्शन के लिए आते है। वह पूर्वके महाद्वार में खडे है। और उनके सद्गुरु उन्हे धीरेधीरे पश्‍चिम की ओर ले जाते है। और पश्‍चिम के महाद्वार के पहले ही मध्यमें पीतांबर पहने हुए और जिनके नेत्रद्वय चरनकी ओर झुके हुए है ऐसे विठ्ठल दर्शन दे जाते है। तब पश्‍चिम के महाद्वारकी ओर जाना जैसे थम जाता है। यह विठ्ठल, जो पश्‍चिम का परमात्मा है भक्त की करुणा में उसे आलिंगन देने केलिए दौड के आता है। भक्त भी तब तक गर्भगृह तक आ चुका है। भक्त को ज्यादा श्रम न हो इसलिए निर्गुण ब्रह्म सगुण विठ्ठल बन जाता है। भक्त को आलिंगन देता है। और यही पांडुरंगका राऊळ (मंदिर) है। और यही भक्त के हृदय में सगुण दर्शन है। जो विठ्ठल को मिल पाता है वही पश्‍चिम का द्वार पार कर जाता है। कारण पंढरपूर में पश्‍चिम का द्वार विठ्ठल के पिछे है। अव्यक्त तत्त्व थके हुए शरणागत (मारुतिस्थान जिसका जागृत हुआ है) भक्त के लिए दौड के आता है। आगे... जैसा सूर्य उसके किरनोंको लेकर चला जाता है वैसे ही भगवंत भक्त को लेकर चले जाते है। इस नवरात्री में उपासकोंकी यही जगदंबा - कुंडलिनी शक्ति सद्गुरु कृपासे उत्थानित हो और पश्‍चिम का अनुभव हो ऐसी ही सद्भावना व्यक्त करना समयोचित होगा । नवरात्री की शुभकामनाए ! हरि ॐ !
 (लेखन- दामोदर प्र. रामदासी) 🙏🚩
🌸🌸ज्ञानेश्‍वरी ओवी क्रमांक 26, अध्याय 12🌸🌸
अमृताचिया सागरी। जे लाभे सामर्थ्याची थोरी। तेचि दे अमृतलहरी। चुळी घेतलिया॥

एक अमृतका सागर है और उसका कोई मालिक है, उसके सामर्थ्यकी क्या कहने ! अमृतत्त्व-अमरत्व अपने आप उसका होता ही है, पर वही सामर्थ्य उस अमृत सागर लहरोंकी एक कुल्ली जो पी लेगा उसे भी प्राप्त होगा। यहां पर अमृतका सागर, उसकी लहर और उस लहर की कुल्ली यह सब प्रतिकात्मक है। पूर्णरुप ब्रह्म और उसका आविष्कार अर्थात सगुणरुप और सगुणोपासना ऐसा अव्यक्त, व्यक्त और साधना इस संदर्भका ध्वनी है। एक पूर्ण पदार्थके अंशत: अनेक रुप दिखायी देते है। पर वह अपरिछिन्न स्वरुप में होते है और सामर्थ्य के परिणाम समान रुप में होते है । पूर्ण रुपका लीलात्मक विग्रह व उससे प्राप्त होनेवाला स्वानंदधाम या सुख उतनाही होता है, जितना पूर्णरुपसे मिलता है । अमृतका सागर और उसकी कुल्ली इनका परिणाम एकही होता है। लेकिन एक जगह पर सागर पिने का परिश्रम है तो दुसरी जगह अमृत कुल्ली पिने का आनंद है। इसी प्रकारसे स्वगुणस्वरुपकी प्राप्ती में ही अव्यक्त निर्गुण भी मिलताही है। साथ में भक्तीका महासुख भी मिलता है। भागवत यही बात उद्घोषित करता है- या वै साधनसंपत्ति: पुरुषार्थचतुष्टये। तां विना सर्वमाप्नोति यदि नारायणाश्रय:॥ एक नारायण के आश्रयसे ही सर्व उपासना विधीयोंसे मिलने वाले चार पुरुषार्थ सहज ही प्राप्त होते है। इससे तो, अव्यक्तको प्राप्त करनेका परिश्रम अकारण है, यह समज उपासक को प्राप्त होती है । अरे भाई, ‘सगुण तो अंशभेद है’ ऐसा कहने की आवश्यकता नही है । निर्गुण निराकार स्वरुपका पूर्ण सामर्थ्यके साथ होनेवाला जो लीलाविग्रह है वही ‘सगुण’ है। सगुण संयोगसे तो सब समय में (साधनावस्था और सिद्धावस्था) सर्वत्र सुख ही तो है। यह अर्जुन का प्रत्यक्षबोध है। क्या सद्गुरु समर्थ रामदासस्वामीजी की वाणी इस सिद्धांतकी उद्घोषणा नही करती ?   सगुण उच्छेदावे। निर्गुण प्रतिपादावे। तदा निर्गुणचि व्हावे स्वभावे। सगुण होय॥  सगुणी भजन करावे। निर्गुण आपणचि व्हावे।- दासबोध ब्रह्मज्ञान के कल्पनावलय में आबद्ध जीवों को समर्थ रामदासस्वामी जगा रहे है- मी ब्रह्मचि ही गाथा। आला देहबुद्धीचिया माथा ।
ऐसे ही जीव माया के भ्रमजाल में फस जाते है, समर्थ ‘आत्माराम’ ग्रंथ में भी यही बात उठा रहे है- अहं स्फुरणा हेचि माया।
(लेखन- दामोदर प्र. रामदासी) 🙏🚩
🌸🌸 ज्ञानेश्‍वरी ओवी क्र. 20, अध्याय 12
तो सकळवीराधिराजु । जो सोमवंशी विजयध्वजु। तो बोलता जाहला आत्मजु। पंडुनृपाचा॥
 स्वभक्त अर्जुनको अंतर्बाह्य पुनीत करनेवाली प्रविमल बोधगंगा दुसरे अध्याय में सांख्यदर्शन के ज्ञाननिष्ठ निर्वाण पदको धवलांग करते हुए प्रवाहित होती है। आगे सकाम कर्म, निष्काम कर्म, संन्यास आदी उत्तुंग गौरीशंकर का चक्कर लगाते हुए गंभीर और शांत स्वानंदप्रदेश में पसरने लगती होती है। योगप्रदेश परिव्याप्त करके विज्ञानके ढलानसे कलकल करती हुई राजयोग के मंदिर के प्रांगणसे अतिशिघ्र गतीसे दौडने लगती है। पृथ्वी के ब्रह्मोद्भवी ज्येष्ठ श्रेष्ठ विभूतियोंकी दिव्यता निहारते हुई ब्रह्मरुपके महद्भवन में वह अवतीर्ण होती है। भक्त का गांव तो अभी दूर है, बाद में उसके पावन अवस्थाके साथ ब्रह्मप्राकार प्रकट होता है। आगे पिछे एकमेवत्व। नित्य लाडली भक्तानुकंपा अर्जुन के चित्तप्रदेशसे ग्यारहवे अध्यायका ब्रह्मभुवन देखकर तो वह भयभीत हुई और ‘स्ववेद्य’ श्रीहरी को आवाहीत करती है। वह धर्मात्मा, रणकर्कश, महात्मा अर्जुन युद्ध वा स्वजनमोह वा अन्य प्राकृत विचारोंसे विषादयुक्त नही हो सकता । दुसरे अध्याय में उद्भव हुआ धर्मकार्य क्या है ? इस संभ्रम के कारण वह नरशार्दूल निर्णयित नही हो रहा है । उस अर्जुन को भगवान ज्ञानेश्‍वर ‘सकळवीराधिराजु’ कहते है। पहले ही भगवान ने दसवे अध्याय में ‘राम: शस्त्रभृतामहम् !’ कह डाला है। और साथ में ‘पाण्डवानां धनंजय’ भी कहा है। क्षात्रधर्मीय सूर्यवंश से राम और सोमवंशसे अर्जुन आता है। रामरुपसे अधिष्ठित ‘वीराधिराजत्व’ रविकुल में त्रेतायुग में संभव हुआ तो द्वापारयुग में अर्जुन के रुप में वहि ‘वीराधिराजत्व’ सोमवंश में अविर्भूत हुआ है। ज्ञानेश्‍वर रविकुलके राम की तरह अर्जुनकी महानता गाना चाहते है। यहा तो वही राम पार्थ भी है और पार्थसारथी भी हुए है। भक्त और भगवंत विजयी धर्मध्वजा की शान कीर्तिके प्रांगण में लहरा रहे है। पांडुनृपात्मज, वीराधिराज और विजयध्वज इन विशेषणोंके कारण अभ्युदय और नि:श्रेयस इनका समन्वय हुआ है। धर्म और कर्म दोनो क्षेत्रोमें वही भव्य विजय की संभावना ज्ञानेश बता रहे है।  अब वही राम जो पार्थ और पार्थसारथी बनकर हरएक के हृदय के केंद्र में चैतन्यरुप में प्रोत्साहित करते हुए धर्म और कर्म दोनो की अनंत संभावनाओं को जगा रहे है । हमारा स्वप्नील मन काल के प्रवाह में किसी मोड पर कभी तो जागेगा ! और आएगी वह जागरण की बेला ! उसी मोड पर बुद्धत्व की संभावना है जहा अर्जुन की क्षत्रियता और कृष्ण की ब्रह्मण्यता एकसाथ सजग होती है। नारायण का अवतार नर अर्थात अर्जुन ‘सकळवीराधिराजु’ इस विशेषण के साथ सामर्थ्य दिखाता है और उसी नारायण के अवतार नरऋषी अर्थात स्वामी विवेकानंद पार्थसारथी के भूमिकामे अवतरीत होकर हमारे उसी ‘सकलवीराधिराजु’ को जगा जाते है ।
 स्वामीजी कहते है,‘तुम्हारा वेद, वेदांत और तत्त्वज्ञान इन सबका सार किसी एक शब्द में समाया हुआ है तो वह शब्द है, ‘सामर्थ्य’ !
 (लेखन - दामोदर प्र. रामदासी) 🚩

ज्ञानेश्वरी लेख क्र. 1 अ. 12

🌸🌸भगवद्गीताकी टीका ज्ञानेश्‍वरी को लिखे हुए 725 साल पुरे हुए है । इस अवसर पर
🌸ओवी क्र. 23 अध्याय 12 का चिंतन

 अर्जुन उवाच ।  एवं सतत युक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।  ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥1॥
इसपर टीका करते हुए भगवान ज्ञानेश्‍वर कहते है - तरी व्यक्त आणि अव्यक्त। हे तूंचि एक निभ्रांत।भक्ती पाविजे व्यक्त। अव्यक्त योगें ॥23॥ भावार्थ :- व्यक्त और अव्यक्त तू हि हो, ऐसा विश्‍वरुपविराटके माध्यमसे और आदिअंतके सगुण-निर्गुण दर्शनसे तूनेहि नि:संशय सिद्ध किया है। तेरे व्यक्त और अव्यक्त स्वरुपमें आकारभेदसे द्वैतका आभास हुआ पर अनुभव में तो यह दोनो स्थिती में तू एकही है, इस पर मै नि:शंक हू। यह सगुण साकार स्वरुप और वह निर्गुण निराकार विराट् विश्‍वरुप, अरे यह तेरे ही रुप है। तू अव्यक्त होता है और व्यक्त होता है; यह लीला जब तक तू प्रकट कर रहा है, तब तक व्यक्त और अव्यक्त यह दोनो रुप तेरे स्वरुपबोध में, अनुभव में एकत्वही प्रस्थापित करते है। और उस में अभिन्नताही दिखाते है। इसके कारण आदिअंत में सगुण में असत कैसा संभव है ? सत्यासत्य भेद हुआ; फिर भी सगुण के उच्चस्थ प्रेमदिव्य में स्वरुपबोध में सब त्रिपुटी समाप्त होने पर वहा एकात्मक अनुभवसुखबिना और क्या हो सकता है ? फिर बोलो की इस महासुख में जो स्वयम को लेकर भगवान डूब जाता है वह रुपभिन्नता कैसा दिखा सकता है ? विवरण :- प्रभूप्रेमरससे आंतर्बाह्य भरा हुआ सगुण, निर्गुण भेद नही जानता । भगवान ज्ञानेश्‍वर निर्गुण और सगुण इस सापेक्ष ईश्‍वरके पार अनाद्यनंतत्व परमात्मा प्रकट कर रहे है। यद्यपी भक्ती द्वैत में उपासनात्मक व आत्मनिवेदनात्मक- वैधी वा रागानुप्रेमा-गौणी वा परा शास्त्रसे कथित है। फिर भी उसका पर्यवसन उस महद्ब्रह्म भुवनाधिपति श्रीकृष्णस्वरुप में अवस्थित है । भक्त के भाव में भी परात्पर सगुण पुरुषोत्तम का उभयांग अद्वय उत्सव हो रहा है। इस अनाद्यनंतको छोडकर अर्जुन उस विराट को क्यो स्विकार करेगा ? भक्त का वह महाभाव ही श्रीकृष्णशरीर है।
इस संदर्भ में सद्गुरु संत रामदास्वामीजीके खडे वचन ज्ञान के आकाश में लहर उठा रहे है -
 द्वैत पाहता ब्रह्म नसे। ब्रह्म पाहाता द्वैत नसे। द्वैताद्वैत  भासे। कल्पनेसी॥दासबोध 7.5.17॥
 (लेखन- दामोदर प्र. रामदासी) 🚩🙏